शुक्रवार, जून 5

मन और दुनिया

मन और दुनिया 

दुनिया वही है 
पर हर पल नयी है 
मन वही है 
पर चेतना नयी है 
क्षण-क्षण कुछ बढ़ती हुई 
मन अहंकार पर पलता है 
कंस और रावण की तरह आज भी जलता है 
दुनिया आज भी अन्याय, अशिक्षा, 
भय और गरीबी से जूझ रही है 
साथ ही हर पल पुराना कुछ झरता 
और नवीन उभर आता है 
जो जानता है वह द्रष्टा 
कभी पुराना नहीं होता 
वह कुछ भी नहीं है 
जो हो तो घटे या बढ़े 
मन हिसाब लगाता है
आत्मा आप्तकाम है 
वह भी ‘न होना’ जानती है 
सो सदा सन्तुष्ट है 
दुनिया आनी-जानी है  
पर बड़ी मानी है 
जो कहीं जाये न आये 
वह अनामी है ! 

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