आह्वान
चलो सँवारें गाँव देश को
सूखे पत्ते जरा बुहारें
भूलों के जो बने खंडहर
उन्हें गिराकर
या भावी की आशंकाएँ
जो घास-फूस सी उग आयी हैं
उन्हें हटाकर
सूरज को फिर दे आमन्त्रण
वर्तमान के इस शुभ पल में
फूल खिला दें
ग्राम्य देवता धीरे से आ
कर कमलों से उन्हें हिला दें
सुखद स्मृति कोई पावन
बहे यहाँ फिर शुभ यमुना बन
तट पर जिसके बजे बाँसुरी
हँसे कन्हैया का वृंदावन
चलो पुकारें, दे आमन्त्रण
हर शुभता को
उगे हुए झंखाड़ उखाड़ें
आशंका की यदि बदलियां
छायीं मन पर
बह जाने दें झरते जल को
भीग उठे श्यामल धरती का
हर इक रज कण !
बड़ा ही पवित्र आमंत्रण है ये । नमन आपको ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी !
हटाएंसुन्दर आह्वान ... मन में कुछ बदलाव लाने की जरूरत है बस ... फिर कोई ण कोई ज़रूर बंसी बजाएगा यमुना तीरे ...
जवाब देंहटाएंयकीनन, आभार सुंदर प्रतिक्रिया के लिए !
हटाएंबहुत सार्थक और सन्देशप्रद रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शास्त्री जी !
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