प्रकाश और अंधकार
अंधकार की एक लम्बी श्रृंखला...
प्रकाश मिल मिलकर भी खो जाता है,
युगों से इस जगत रूपी सुरंग में चलते हुए
निकास द्वार कहीं नजर नहीं आता है !
खुला आकाश निमन्त्रण देता
धरा से पाँव बंधे हैं
मुक्ति का गीत मन गाए भी
पर, बंद पिंजरे में ही
पंख फड़फड़ाता है !
‘मैं’ का होना ही अँधेरा
‘तू’ ही प्रकाश पुंज घनेरा
तेरे प्रकाश की ही छाया है यह जग
तुझसे ही जीवन पाता है !
अँधेरा भी प्रकाश के बल पर इतराता
लुप्त होता पल में
उसके आने पर
मन यही भेद ही तो बेखुदी में
अक्सर भूल जाता है !
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जवाब देंहटाएंसुन्दर और सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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