तू और मैं
जैसे कड़ी से कड़ी जुड़ी है इस तरह
कि कोई जोड़ नजर नहीं आता
‘तू’ जुड़ा है’मैं’ से उसे भेद जरा नहीं भाता
‘मैं’ को यह ज्ञात नहीं
निज संसार बसाता है
सृष्टि के अहर्निश गूँजते संगीत में
अपनी ढपली अपना राग सुनाता है
कभी सुर मिल जाते हैं संयोग से तो
फूला नहीं समाता
जब बेसुरा लगता है संगीत तो
अश्रु बहाता है
भुला जड़ें गगन में फूल खिलाता है
तज भाव तर्क में प्रवीण हुआ जाता है
हो सकती है पृथक सुरभि पुष्प से ?
तपन अगन से या किरण सूर्य से ?
पर ‘मैं’ असंभव को संभव कर दिखाना चाहता है !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 18 जून जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
हटाएं"जब बेसुरा लगता है संगीत तो
जवाब देंहटाएंअश्रु बहाता है"
सार्थक रचना।
स्वागत व आभार !
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