शनिवार, जुलाई 4

खेल कोई चल रहा ज्यों

खेल कोई चल रहा ज्यों 

विवश होकर आज मानव 
कैद घर में पूछता यह, 
कब कटेगी रात काली 
कब उजाला पायेगा वह ? 

उच्च शिखरों पर चढ़ी थी 
धूल धुसरित आज आशा, 
खेल कोई चल रहा ज्यों 
साँप-सीढ़ी की सी भाषा !

रज्जु को यदि सर्प माना
भय की दीवारें चुन ली, 
किन्तु ऐसा भी चलन है 
सर्प से ही आड़ बुन ली !

आज ऐसा ही समय है 
व्यर्थ सारा श्रम हुआ है, 
जहाँ पनपी आस्था थी 
भान होता भ्रम हुआ है !

सत्य को यदि ढूँढ पाए 
भूल से वह नहीं छिटके, 
राह अपनी जो चुनें फिर  
कदम ना उस डगर ठिठके !

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