आदि - अंत
आदि में 'एक' ही था
'एक' के सिवा दूसरा नहीं था
फिर विभक्त किया उसने स्वयं को 'दो' में
एक वामा कहलायी, बांये अंग में बैठने वाली
दूसरा अथक श्रम से सृष्टि का संधान करने वाला
दोनों में कोई छोटा-बड़ा न था
एक प्रेम की मधुर रस धार थी
एक घर बनाकर प्रतीक्षा करती
दूसरा दुनिया जहान से पदार्थ लाता
वह सेविका बनकर भी मालकिन थी
वह स्वामी बनकर भी याचक था
तब जीवन सहज था क्योंकि
विरोधी पक्ष एक दूसरे में समाहित थे
काल की धारा में सब बदलने लगा
एक विस्तार पाता गया जितना
घर से दूर होता गया
प्रेम को बंधन मानकर तिरस्कार किया
दूसरी भी अपमान से कुंठित हुई
नए-नए रूप धर लुभाने लगी
जीवन खंड-खंड हो गया
प्रेम ही है घर का आधार
यदि न बचे तो बिखर जाता है संसार !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज मंगलवार (19 -5 -2020 ) को "गले न मिलना ईद" (चर्चा अंक 3706) पर भी होगी, आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
स्वागत व आभार शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने कि प्रेम ही समरसता का आधार है।
जवाब देंहटाएंसादर
स्वागत व आभार !
हटाएंआपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ ... साइकल के दोनों पहियों का एक सामान होना जरूरी है ... आदर, विश्वास, प्रेम, सामान मिल कर ही समरसता आएगी ...
जवाब देंहटाएंप्रेम ही बाँधे है सबको नहीं ,सब बिखर जाय.
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं आप, प्रेम का यह बंधन सबसे अनमोल है
हटाएंप्रेम है तो सृष्टि है।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति अनिता जी।
सादर।
और प्रेम ही तो जीवन दृष्टि है, शुक्रिया श्वेता जी !
हटाएंप्रेम जीवन का आधार है
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना
पढ़े--लौट रहे हैं अपने गांव
स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंवह सेविका बनकर भी मालकिन थी
जवाब देंहटाएंवह स्वामी बनकर भी याचक था
काल की गति....
समर्पण भाव से लोग रिक्त है आज
शनैः शनै प्यार और समरसता का ह्रास हो हो रहा है। आज शेष है तो केवल 'मैं'.
सही कह रही हैं आप, मैं केवल दुःख में ही ले जाता है
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