बुधवार, फ़रवरी 9

आत्मा का वस्त्र

आत्मा का वस्त्र

वह ठंड से कांप रही थी
सिकुड रही थी, ठिठुर रही थी
उस दिन मैंने उसे बर्फीले बियाबान में
सिसकते देखा,
याद है मुझे उस दिन मैंने चोरी की थी
और वह दिन भी याद है
जब विष में बुझे कटु वचन कहे थे
कहने से पूर्व मंत्र की तरह जपे थे
लहुलुहान हो गयी थी वह
अश्वथामा की तरह मणिविहीन !

भटकते हुए भी देखा उसे
जब-जब किया विश्वासघात
जब-जब हुआ पतन
हर बार वह चीखी,

आखिर उसकी पुकार को
कब तक अनसुना करती
एक दिन उसे पुचकारा
सहलाया, और घटा चमत्कार
एक आश्वासन पाते ही वह नूतन हो गयी !

अब मैं उसके लिये वस्त्र बुनती हूँ
कोमल, नरम, गर्म वस्त्र
उसके लिये अपना अंतर सजाती हूँ
फुलवारी लगाती हूँ
ताकि वह निश्शंक घूम सके
आस्था के वस्त्र पहने
प्रेम के गाँव में !

अनिता निहालानी
९ फरवरी २०११

2 टिप्‍पणियां:

  1. ताकि वह निश्शंक घूम सके
    आस्था के वस्त्र पहने
    प्रेम के गाँव में !

    बहुत सुन्दर है बनाया आत्मा का वस्त्र ! बहुत मननीय प्रस्तुति.

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  2. आत्मा का वस्त्र...
    बहुत सुन्दर है
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें

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