नन्हा सा यह दिल बेचारा
एकाकी पर नहीं अकेला
अंतर में सबके इक मेला,
इक आवाज सदा गूंजती
जो करती है ठेलमठेला !
रुकते-रुकते फिर चल पड़ता
गिरते-गिरते फिर उठ जाता,
नन्हा सा यह दिल बेचारा
डगमग करता फिर थम जाता !
कभी-कभी ही खुद से मिलता
ज्यादातर दौरे पर रहता,
अपने घर आने से डरता
यहाँ वहाँ ही डोला करता !
कुछ भी नहीं है जो खो जाये
व्यर्थ ही घेराबंदी करता,
इधर-उधर का ज्ञान अधूरा
मोहर लगा चकबंदी करता !
इक दिन तो थक कर बैठेगा
निज के ताने बाने खोले,
खुलवायेगा अपने घर के
डरते-डरते भेद अबोले !
फिर खाली हो मुस्काएगा
विश्रांति की फसल उगाने,
भर-भर कर झोली उमंग से
गायेगा फिर गीत, तराने !
अनिता निहालानी
१६ मार्च २०११
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंहाज़िर हूँ.....लफ्ज़ नहीं है आज भी..... :-)
bahut khoob ..anupam ..
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