बुधवार, मई 18

पिता


पिता

पुराने वक्तों के हैं पिता
उन वक्तों के
जब हवा में घुल गयी थी दहशत
खिलखिलाहटें, फुसफुसाहटों में
और शोर सन्नाटे में बदल रहा था
पाक पट्टन के स्कूलों में

बंटवारे की चर्चा जो पहले उड़ती थी
चाय की चुस्कियों के साथ
अब हकीकत नजर आने लगी थी
तब किशोर थे पिता
नफरत की आग घरों तक पहुँच चुकी थी
पलक झपकते ही आपसी सौहार्द का पुल
विघटन की खाई में बदल गया था

पुश्तों से साथ रहते आये गाँव तथा परिवार
ढह गए थे ऐसे जैसे कोई दरख्त जड़ों सहित
उखाड़ दिया गया हो
जलते हुए मकान, संगीनों की नोक पर
टंगे बच्चे, बेपर्दा की जा रहीं औरतें

रातोंरात भागना पड़ा था  उन्हें
औरतों व बच्चों को मध्य में कर
घेर कर चारों ओर से वृद्ध, जवान पुरुष
बढ़ते गए मीलों की यात्रा कर
कारवां बड़ा होता गया जब जुटते गए गाँव के गाँव..

....और फिर दिखायी पड़ी भारत की सीमा
जो था अपना पराया हो गया देखते-देखते
खून की गंध थी हवा में यहाँ भी
दिलों में खौफ, पर जीवन अपनी कीमत मांग रहा था
पेट में भूख तब भी लगती थी
...कहते-कहते लौट जाते हैं (अब वृद्ध हो चले पिता)    
पुराने वक्तों में... कि सड़कों के किनारे मूंगफली
बेचते रहे, गर्म पुराने कपड़ों की लगाई दुकान
और कम्पाउडरी भी की
फिर पा गए जब तहसील में एक छोटी सी नौकरी
हाईस्कूल की परीक्षा के लिये
सड़क के लैम्प के नीचे की पढ़ाई
पुरानी मांगी हुई किताबों से
और बताते हुए बढ़ जाती है आँखों की चमक
पास हुए प्रथम श्रेणी में
भारत सरकार के डाकविभाग में बने बाबू
और सीढ़ियां दर सीढ़ियां चढ़ते
जब सेवानिवृत्त हुए तो सक्षम थे
एक आरामदेह बुढ़ापे की गुजरबसर में
पर रह रह कर कलेजे में कोई टीस उभर आती है
जब याद आ जाती है कोई बीमार बच्ची
जिसे छोड़ आये थे रास्ते में उसके मातापिता
एक बूढी औरत जो दम तोड़ गयी थी पानी के बिना
दिल में कैद हैं आज भी वह चीखोपुकार
वह बेबसी भरे हालात
आदमी की बेवकूफी की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी
पिता ऊपर से संतुष्ट नजर आते हैं
पर भीतर सवाल अब भी खड़े हैं !


अनिता निहालानी
१८ मई २०११     

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक........वो वक़्त ही ऐसा रहा होगा.....न चाहते हुए भी इंसान राजनीती की चक्की में पीस गया था......बहुत सुन्दर ढंग से आपने पोस्ट में समय का बखान किया है.......आपके पिता जी को सादर नमस्ते |

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  2. रौंगटे खडे करने वाला चित्रण किया है…………समझ सकते है कि उस दिल पर क्या बीतती होगी जिसने ये भोगा होगा।

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  3. पिता ऊपर से संतुष्ट नजर आते हैं
    पर भीतर सवाल अब भी खड़े हैं !

    ये सवाल खड़े होना भी स्वाभाविक है मेरी समझ से.कितना कुछ झेला होगा उन्होंने और कितने ही असामान्य दृश्य देखे होंगे जिसकी कल्पना से ही रोंगटे खड़े जाएँ.
    विभाजन की त्रासदी का जैसे शब्द चित्र ही प्रस्तुत कर दिया है आपने.

    आदरणीय अंकल जी को सादर चरण स्पर्श!

    सादर

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  4. उस पिता का दर्द महसूस करा दिया आपने ..आह .. ..

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