हाँ
हाँ, ढगे गये हैं हम बार-बार
छले गये हैं
हुए हैं अपनी ही नादानियों के
शिकार
कभी दुर्बलताओं के अपनी
मृत्यु से डर कर बेचे हैं अपने जमीर
घृणा के भय से सहे हैं अत्याचार
हाँ, हुए हैं कम्पित अनिश्चय
के भय से
सुरक्षा की कीमत पर तजते रहे हैं निज स्वप्नों को
कभी प्रेम के नाम पर कभी शांति के नाम पर
कुचल डाले हैं भीतर खिलते कमल
हर बार जब इम्तहान लेने आई है जिन्दगी
मुँह छिपाए हैं हमने भी
टाला है हर बार अगली बार के लिए
अपनी आजादी के गीत बस
स्वप्नों में गाए हैं
जब मांगी है कीमत किसी ने
नजरें झुका ली हैं हमने भी
पर सुना है.. जब बदल जाते हैं समीकरण
अचानक सब कुछ विपरीत घटने लगता है..
बढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकारें आदरणीया-
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंहाँ, सच है, समीकरण बदल जाते हैं तो अनुकूल और विपरीत दोनों घटने लगता है. बधाई.
जवाब देंहटाएंरविकर जी, माहेश्वरी जी व शबनम जी आप सभी का स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंहर बार जब इम्तहान लेने आई है जिन्दगी
जवाब देंहटाएंमुँह छिपाए हैं हमने भी
टाला है हर बार अगली बार के लिए
.....सटीक ....लेकिन समय के साथ सब कुछ बदल जाता है...बहुत सुन्दर
वाह बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ |
जवाब देंहटाएंकौशल जी, कैलाश जी व इमरान आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंअत्युत्तम..
जवाब देंहटाएं