गुरुवार, जनवरी 16

हाँ

हाँ



हाँ, ढगे गये हैं हम बार-बार
छले गये हैं
 हुए हैं अपनी ही नादानियों के शिकार
कभी दुर्बलताओं के अपनी
मृत्यु से डर कर बेचे हैं अपने जमीर
घृणा के भय से सहे हैं अत्याचार
 हाँ, हुए हैं कम्पित अनिश्चय के भय से
सुरक्षा की कीमत पर तजते रहे हैं निज स्वप्नों को
कभी प्रेम के नाम पर कभी शांति के नाम पर
 कुचल डाले हैं भीतर खिलते कमल
हर बार जब इम्तहान लेने आई है जिन्दगी
 मुँह छिपाए हैं हमने भी
टाला है हर बार अगली बार के लिए
 अपनी आजादी के गीत बस स्वप्नों में गाए हैं
जब मांगी है कीमत किसी ने
नजरें झुका ली हैं हमने भी
पर सुना है.. जब बदल जाते हैं समीकरण
अचानक सब कुछ विपरीत घटने लगता है..



10 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति-
    बधाई स्वीकारें आदरणीया-

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  2. हाँ, सच है, समीकरण बदल जाते हैं तो अनुकूल और विपरीत दोनों घटने लगता है. बधाई.

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    1. रविकर जी, माहेश्वरी जी व शबनम जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  3. हर बार जब इम्तहान लेने आई है जिन्दगी
    मुँह छिपाए हैं हमने भी
    टाला है हर बार अगली बार के लिए
    .....सटीक ....लेकिन समय के साथ सब कुछ बदल जाता है...बहुत सुन्दर

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  4. वाह बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ |

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  5. कौशल जी, कैलाश जी व इमरान आप सभी का स्वागत व आभार !

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