शिशु भाव में कोई मानव
नन्हा शिशु निःशंक हो जाता
माँ के आँचल में आते ही !
जब से उसने आँखें खोलीं
सम्मुख उसे खड़ा ही पाया,
साधन बनी मिलन का जग से
सब से परिचय था करवाया !
बालक यदि सदा शिशुभाव में
माँ का आश्रय लेकर रहता,
व्यर्थ अनेकों उपद्रवों से
खुद को सदा बचाये रखता !
किन्तु उसका यह अबोध मन
माँ से भी विद्रोह करेगा,
जिसने उसको जन्माया है
उस जननी पर क्रोध करेगा !
जिसने सदा ही सुहित चाहा
उसकी आज्ञा ठुकरायेगा,
निश्च्छल निर्मल प्रेम को उसके
समझ देर से ही पायेगा !
चाहे कितनी देर हुई हो
माँ का दिल प्रतीक्षा करता,
परमात्मा का प्रेम वहीं तो
सहज विशुद्ध रूप में बसता !
शिशु भाव में कोई मानव
जब मन्दिर के द्वारे जाता
सदा भवधरण की बाँहों का
खुला निमंत्रण वह पा जाता !
सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसच कहा आपने शिशु जैसा निश्चल और निस्वार्थ प्रेम सिर्फ परमात्मा ही कर सकता है।
जवाब देंहटाएंसादर
सही कहा आपने, परमात्मा ही ऐसा प्रेम देता है यदि मानव भी उसके पास शिशु भाव से जाता है !
हटाएंअबोध शिशु की तरह निर्मल मन हो तभी परमात्मा मिल सकते हैं। बहुत सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
जवाब देंहटाएंकोमल भावसिक्त बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम !
हटाएंअनिर्वचनीय !!!
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम !
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