शुक्रवार, मई 15

जितना दिया है अस्तित्त्व ने हमें

जितना दिया है अस्तित्त्व ने हमें 


जितना दिया है अस्तित्त्व ने 
कहाँ करते हैं हम उतने का ही उपयोग 
‘और चाहिए’ की धुन में व्यस्त रहता मन 
देख ही नहीं पाता पूर्व का योग !

धारते आये हैं जिन्हें 
उन शक्तियों को पहचानते नहीं  
 जिनका अनंत स्रोत 
भर दिया अस्तित्त्व ने 
उन्हें खर्च करना जानते नहीं 
 वर्षों से कोई उपयोग नहीं 
किया, क्यों न उसे निकालें 
जिसे हो आवश्यकता 
अच्छा हो वही संभालें !

घर आंगन की हर इक शै से 
रोज का मिलना-जुलना हो 
मन की नदी  बहेगी नहीं 
तो कैसे उसमें कमल का खिलना हो 
नहीं तो कौन अदृश्य वहां बना लेगा डेरा 
हम जान ही नहीं पाएंगे 
फिर अपने ही घर में जाने से घबराएंगे !

मन बहती हुई नदी की तरह 
बांटता रहे अपनी शीतलता और ताजगी 
हाथ वह सब करें जिसकी जरूरत है 
न कि बाट जोहें, किसी के आने की 
कदम बढ़ते रहें जब तक चल रही है श्वास  
ताकि मिलन हो जब अस्तित्त्व से 
तो डाल सकें उसकी आँख में आँख !

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