चाह -अचाह
‘वह’ क्या चाहता है
‘वह’ चाहता भी है क्या ?
जब तक चाह शेष है भीतर
तब तक ‘वह’ है नहीं
‘वह’ सन्तुष्ट है अपने होने मात्र से
जैसे कोई फूल क्या चाहता है
वह बस होता है
शेष सब घटता है उसके आसपास
न भी घटे तो होता नहीं उसकी तरफ से
थोड़ा सा भी प्रयास
लोग ठिठकते हैं पल भर को उसे निहार
भँवरे गीत सुनाते हैं
तितलियाँ तृप्त होती हैं पराग से
वह किसी घड़ी चुपचाप झर जाता है !
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
31/05/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंपत्रकारिता दिवस की बधाई हो।
स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंमानव मन बस इतना समझ ले तो आनंद को पा जाए ।
जवाब देंहटाएंसही है, आभार !
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