मंगलवार, मई 26

जब

जब
जब चुक जाती हैं संवेदनाएं सिकुड़ जाती है आत्मा आत्मकेंद्रित हो जाता है प्रेम दुःख का असली क्षण वही होता है ! होता है ये सब भी किसी पीड़ा के कारण पर वह पीड़ा किसी निजी दुःख की परिणति है अपने-अपने अंधेरों से घिरे हम अपने खोलों में सिमट जाते हैं ! जब आशा की उम्मीद लगाए जगत हमारी ओर तकता है हम अपने ही दुखों के बोझ तले दबे रहते हैं ! जगत जब फेर लेता हैं आँखें तो हमें ज्ञात होता है निज पीड़ा में कर्त्तव्यों को भुलाना हम अपना अधिकार समझते हैं तब किसी की जरा सी भी अपेक्षा को दिल पर भार समझते हैं किन्तु सीमित हो जाती चेतना के रूप में एक अभिशाप भी ढोते हैं प्रेम जो वरदान के रूप में मिला है उसे ही खोते हैं ! बिन बंटा पदार्थ शेष रह जाता होगा पर बिन बंटी ऊर्जा बिखर ही जाती है प्रेम न बन सकी तो उदासी बन कर दूर अंतरिक्ष में खो जाती है !

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