गुरुवार, सितंबर 23

मिल गयी चाबी

मिल गयी चाबी

रात अँधेरी और घनेरी, घर का रस्ता भूल गया वह
दूर कहीं से ध्वनि भयानक, भटक रहा भयभीत हुआ वह I

टप टप बूंदें, पवन जोर से, ठंड हड्डियों को थी कंपाती
तभी अचानक बिजली चमकी, घर का द्वार पड़ा दिखाई I

झटपट पहुँचा द्वार खोलने, ताला जिस पर लटक रहा था
सारी जेबें ली टटोल पर, चाबी कहीं गुमा आया था

खड़ा रुआँसा भीगा, भूखा, याद आ रही कोमल शैया
नींद भूख दोनों थीं सताती, लेकिन था मजबूर बड़ा I

आसमान को तक के बोला, मदद तुम्हीं अब कर सकते
तभी हाथ कंधे पर आया, मित्र पूछता, क्या दे सकते?

खुशी और अचरज से बोला, खोलो द्वार, फिर जो मांगो
तुरंत घुमाई उसने चाबी, भीतर आ बोला, अब जागो I

मन ही तो वह भटका राही, द्वार आत्मा पर जो आता
ज्ञान मित्र रूप में आकर, बस पल में भीतर ले जाता I

मन पाता विश्राम जहाँ पर, घर अपना वह सुंदर कितना
मिल गयी चाबी हुआ तृप्त, ‘हो’ होना चाहे फिर जितना I

अनिता निहालानी
२३ सितम्बर २०१०

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