शनिवार, जनवरी 15

विप्लव आज अवश्यम्भावी


विप्लव आज अवश्यम्भावी

 घंटनाद मंदिरों के अब बन जाने दो सिहंनाद,
आज वही युग आया जब युद्ध में हो संवाद !

जाग उठे अब जन जन ऐसी रणभेरी बजने दो,
क्रांति बिगुल बजाए ऐसा हर मस्तक सजने दो !

विप्लव आज अवश्यम्भावी युग बीते हम सोये
कैद हुए निज पीड़ा में पाया क्या बस रोये ?

भुला दिये मूल्यों का सम्मान पुनः करना है,
लेकिन पहले जाग के भीतर स्वयं अभय भरना है !

भीतर पाकर परम उजाला जग में उसे लुटाएं,
उसी शांति से उपजे कलरव क्रांति गीत बन जाएँ !

कोना कोना गूंज उठे फिर ऐसा रोर मचे,
उखड़ें सड़ी गली रीतियाँ जमके शोर मचे !

हाथ उठा आज धरा को अम्बर से मिलने दो
  चिन्मय को मृण्मय का संदेसा पा खिलने दो !

अनिता निहालानी
१५ जनवरी २०११ 

7 टिप्‍पणियां:

  1. लेकिन पहले जाग के भीतर स्वयं अभय भरना है !--यही तो सबसे मुश्किल काम है.जिस दिन भीतर अभय आ गया ,सब कुछ ठीक लाइन पर आ जाएगा.

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  2. अनीता जी,

    बहुत सुन्दर.....ये क्रांति अगर हो जाये तो शायद दुनिया कुछ और ही बन जाएगी.....बहुत सुन्दर....

    रोर का अर्थ समझ नहीं पाया|

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  3. क्रन्तिकारी उद्घोष देती हुई सुंदर प्रस्तुति -
    मैं आपके साथ हूँ -
    शुभकामनायें

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  4. ओजपूर्ण रचना जो क्रांति का बिगुल बजाती प्रतीत होती है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    फ़ुरसत में … आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ (दूसरा भाग)

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  5. भुला दिये मूल्यों का सम्मान पुनः करना है,
    लेकिन पहले जाग के भीतर स्वयं अभय भरना है !

    बहुत प्रेरक..आज इसी क्रांति की आवश्यकता है..

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  6. कोना कोना गूंज उठे फिर ऐसा रोर मचे,
    उखड़ें सड़ी गली रीतियाँ जमके शोर मचे !
    बहुत ही क्रांतिकारी विचार हैं आपके अनिता जी|
    navincchaturvedi@gmail.com

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  7. आप सभी का आभार एवं आवाहन ! मेरे विचार से रोर का अर्थ भीषण ध्वनि है.

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