जब सारा आकाश हमारा
नन्हा पूछे माँ से अपनी
देख गगन में उड़ती चिड़िया,
क्या है यह, क्यों उड़ती है
पूछ रही बाबा से गुड़िया !
पूछ रहे हैं प्रश्न सदा से
नन्हे बच्चे स्वयं को जान के,
पहला प्रश्न ही पूछ-पूछ के
खो जाते हम इस जहान !
‘मैं कौन हूँ’ जो यह पूछे
वही मार्ग जीवन का पाए,
हर पीड़ा से मुक्त हुआ वह
सत्य में स्थिर हो जाये !
मैं सीमित हूँ मान के जग में
कितना वक्त गवांया हमने,
स्वयं की असलियत न जानी
व्यर्थ ही खेल रचाया हमने !
हर उपाधि आश्रय ही है
जीवन सदा सहारा माँगे,
‘मैं भी कुछ हूँ’ इस के बल पर
रात-दिवस हर कोई भागे !
बैसाखी है मात्र उपाधि
मुक्त हुए हम क्यों न रहें,
जब सारा आकाश हमारा
क्यों फिर हम पीडाएं सहें !
सुख की बौछारें होती हैं
शांति का आगार छिपा है,
निराश्रय हुआ जो जग में
उसके हित ही प्यार छिपा है !
‘मैं कौन हूँ’ जो यह पूछे
जवाब देंहटाएंवही मार्ग जीवन का पाए,
हर पीड़ा से मुक्त हुआ वह
सत्य में स्थिर हो जाये !
अक्षरशः सत्य!
वाह! बहुत सकारात्मक चिंतन से पूर्ण कृति,बधाई !
जवाब देंहटाएंसुंदर..सूक्ष्म ..भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंजीवन के नए आयामों को तलाशती सुंदर कविता. बधाई.
जवाब देंहटाएंसही कहा , हम वक्त गंवाते रहते हैं और स्वतं को जान नहीं पाते हैं.ह्रदय तक पहुंचती रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना ..गहन भाव लिए हुए ..
जवाब देंहटाएं‘मैं कौन हूँ’ जो यह पूछे
जवाब देंहटाएंवही मार्ग जीवन का पाए,
हर पीड़ा से मुक्त हुआ वह
सत्य में स्थिर हो जाये !
सबसे बड़ा प्रश्न है ये ..........बहुत सुन्दर पोस्ट|