शुक्रवार, नवंबर 25

तेरे भीतर मेरे भीतर


तेरे भीतर मेरे भीतर

स्वर्ण कलश छिपा है सुंदर
तेरे भीतर मेरे भीतर,
गहरा-गहरा खोदें मिलकर
तेरे भीतर मेरे भीतर !

दिन भर इधर-उधर हम खटते
नींद में उसी शरण में जाते,
शक्तिपुंज वह सुख का सागर
फिर ताजे हो वापस आते !

होश जगे यदि उसको पाएँ
यह प्यास भी वही जगाए,
सुना बहुत है उसके बारे
वह ही अपनी लगन लगाये !

इस मन में हैं छिद्र हजारों
झोली भर-भर वह देता है,
श्वासें जो भीतर चलती हैं
उससे हैं यह दिल कहता है !

अग्नि के इस महापुन्ज में
देवशक्तियां छुपी हैं कण-कण,
बर्फीली चट्टानों में भी
मिट्टी के कण-कण में जीवन !

जो भी कलुष कटुता भर ली थी
उसके नाम की धारा धो दे,
जो अभाव भी भीतर काटे
अनुपम धन भर उसको खो दें !
 




10 टिप्‍पणियां:

  1. स्वर्ण कलश छिपा है सुंदर
    तेरे भीतर मेरे भीतर,
    गहरा-गहरा खोदें मिलकर
    तेरे भीतर मेरे भीतर !
    bahut sunder bhav ..

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  2. सुभानाल्लाह...........बेहतरीन......शानदार पोस्ट|

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  3. अग्नि के इस महापुन्ज में
    देवशक्तियां छुपी हैं कण-कण,
    बर्फीली चट्टानों में भी
    मिट्टी के कण-कण में जीवन
    वाह बहुत खूब लिखा है आपने ....

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  4. वाह अनीता जी जितनी तारीफ़ की जाये कम है…………बेहतरीन्।

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  5. अनुपमा जी, अना जी, संगीता जी, इमरान जी, मनोज जी, सुषमा जी, वन्दना जी, अंजू जी, और पल्लवी जी आप सभी का बहुत बहुत आभार!

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