बुधवार, जनवरी 4

सुरभि अनोखी

सुरभि अनोखी

गूंजती हैं जब वेद ऋचाएँ कहीं
या हवा के कंधों पर उड़कर
आती हैं अजान की आवाजें..
ले आती हैं सुगन्धि उसकी...

आत्मा के नासापुट ढूँढते रहे हैं
जिस सुरभि को जन्मों–जन्मों से
माटी की देह का नहीं कुछ मोल जिसके बिना
माटी में मिल हो जाये माटी
इससे पूर्व सुरभि भरे भीतर
जो व्याप्त है कण-कण में
पर मन का धुँआ इतना घना है
कि वह गंध खो जाती है
नहीं पहुंचती आत्मा तक...

18 टिप्‍पणियां:

  1. मन का धुँआ इतना घना है
    कि वह गंध खो जाती है
    नहीं पहुंचती आत्मा तक...अक्षरसः सच

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  2. बेहद सुन्दर रूहानी अभिव्यक्ति आत्मा के संगीत सी .

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  3. मन पावस हो गया पढ़कर ....!!
    आभार...

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  4. मन पर छाये धुंएं का सहज चित्रण .. सुगंधि की तलाश में भटकता है मन .

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  5. वाह ...बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  6. वैचारिक ताजगी लिए हुए रचना विलक्षण है।

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  7. बहुत खुबसूरत अल्फाज़ हैं |

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  8. मन पर पड़े घने धुंआ को हटाने पर ही आत्मा तक उसकी सुरभि आती है ..बहुत सुन्दर बात इतने सुन्दर ढंग से कह दिया आपने अनीता जी , कैसे मैं आभार व्यक्त करूँ..?

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  9. aap kirachnaye kisi aur hi lok me pahucha deti hai....shukriya....achi rachna ke liye bdhai...

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  10. jis din ye man ka ghana kohra chat jaayega...sansaar swarg ho jaayega...bahut sundar rachna

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  11. गूंजती हैं जब वेद ऋचाएँ कहीं
    या हवा के कंधों पर उड़कर
    आती हैं अजान की आवाजें..
    ले आती हैं सुगन्धि उसकी...

    aur sab taraf sugandh hi sugandh....

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  12. आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया !

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