मन और वह
मन हिरण सा दौड़ता है
धरती से आकाश तक
अनभिज्ञ.... कि कोई है ज्योति शिखा सा
भीतर जलता है, अकंप
जो उसमें प्राण फूँकता है
मन बादलों की तरह डोलता है
चाहता है दूर अंतरिक्ष के पार जाना
अनभिज्ञ.... कि कोई है पूनो के चाँद सा
जो उससे ही आवृत रहता है
देता है संबल
युगों से प्रतीक्षारत
मौन ! दौड़ कभी तो अर्थहीन होगी
डोलना कभी तो थमेगा
गति के पीछे अगति में
रूप के पीछे अरूप में
शब्द के पीछे निशब्द में
सम्भवतः सुख के पीछे आनंद में !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 07 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंउस अकंप का पता बताने के लिए हार्दिक आभार । अति सुंदर ।
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