अस्तित्त्व और हम
एक हवा का झोंका भी आकर
उसकी खबर दे जाता है
दूर गगन में उगता हुआ साँझ का तारा
उसकी याद से भर जाता है
बादलों में बना कोई आकार
छेड़ जाता है मन की झील को
डाली पर एक फूल का खिलना
कैसी मुस्कान अंतर में जगा जाता है
तेरे मिलने के हजार ढंग हैं !
वर्षा की फुहार बनकर तू ही
भिगोता है उर का आंगन
कोयल की कूक में कोई नगमा सुना जाता है
सूरज की पहली किरण
छूती है चेहरे को
लगता है तू ही चुपके से गुलाल लगा जाता है
झरनों का संगीत या पंछियों का गीत
ओस की छुवन या घास का परस
देता है तू ही हर रूप में
हर रंग में हर शै में दरस
तू ज्योति बनकर दीपक में जलता है
जिसे देख अंतर में कोई स्वप्न पलता है
मन भी ज्योति बनकर
जले तेरी राह में
कुछ भी न शेष रहे
शून्य ही बरसे हर चाह में
अस्तित्त्व के साथ एक हो जाना ही तो पूजा है
उसके सिवा न साधन कोई दूजा है !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 04 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावाभिव्यक्ति।
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