अगम, अगोचर बहे सदा ही
सुर-संगीत की तरणि बहती
है अजस्र वह धार परम की,
निशदिन कोई यज्ञ चल रहा
अगम, अगोचर बहे सदा ही !
भीगे, डूबे, उतराए उर
पोर-पोर हो सिक्त देह का,
सुन सकते तो धरो कान अब
स्वाद चखो फिर मुक्त नेह का !
चुक जाती वह धार नहीं यह
इक अखंड. अनंत सलिला है,
युगों-युगों से तट पर जिसके
करुणा प्रीत बही अनिला है !
इसी घाट पर गोपी थिरकी
वंशी की भी तान छिड़ी थी,
स्वीकृत राम की शक्ति पूजा
समाधि अंतिम यहीं घटी थी !
गोदावरी, नर्मदा, यमुना
नाम भिन्न पर घाट वही है,
लक्ष्य एक एक ही स्रोत है
हर राही का बाट यही है !
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 2 नवंबर 2020) को 'लड़कियाँ स्पेस में जा रही हैं' (चर्चा अंक- 3873 ) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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