मंगलवार, अगस्त 2

छिपा बूँद में भी इक सागर

छिपा बूँद में भी इक सागर


छोटा सा दिल लघु सी चाहत 

उससे बनती मन की कारा, 

उठो आज अम्बर को छू लो 

है अनंत सामर्थ्य तुम्हारा !


​​शुभ विवेक, आनंद छुपा है 

अन्न, प्राण, मन में ही अटके 

अपने ही बल से अनजाने 

बार-बार इस भव में भटके 


एक अपार ऊर्जा अविरत 

फैली है जो भीतर-बाहर,

बनो माध्यम बहना चाहती  

छिपा बूँद में भी इक सागर !


शांति,प्रेम ये शब्द नहीं हैं 

मूर्त रूप में भीतर रहते, 

मनस की यह अपार ऊर्जा 

क्यों न बिखेरें सहज विहँसते !


जीवन इक अनमोल कोष है 

प्रतिभिज्ञा भर इसकी कर लें,

साथ लिए जाएँ जग से क्यों

तृप्त हुए खुद इसे लुटा दें !




6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!

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  2. ​​शुभ विवेक, आनंद छुपा है

    अन्न, प्राण, मन में ही अटके

    अपने ही बल से अनजाने

    बार-बार इस भव में भटके ।

    सच्ची बात कह दी । ऐसे ही तो भटकते रहते । सुंदर रचना ।

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  3. जीवन इक अनमोल कोष है
    प्रतिभिज्ञा भर इसकी कर लें,
    साथ लिए जाएँ जग से क्यों
    तृप्त हुए खुद इसे लुटा दें !
    ....बहुत ही सुंदर भवाभिव्यक्ति।

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