मंगलवार, अक्तूबर 19

मुक्ति का छंद

मुक्ति का छंद

रोकें नहीं ऊर्जा भीतर
पल-पल बहती रहे जगत में,
त्वरा झलकती हो कृत्यों से
पांव रुकें ना थक कर मग में !

हरसिंगार से नित रिक्त हों
पुनः-पुनः मंगलमय ज्योति झरे,
जमी ऊर्जा बन पाहन सी  
न सृजनशील विनाश ही करे !

नदी रुकी जो नष्ट हो गयी
बहती सदा स्रोत से पाए,
जीवन जो नित बढ़ना जाने
मंजिल वह इक दिन पा जाये!

पुण्यों की ऊर्जा बहायें
भीतर न कोई अभाव रहे,
भरता ही जाता है आंचल
जब-जब मुक्ति की मिठास बहे !

लुटा रहा है सारा अम्बर 
हम भी दोनों हाथ उलीचें,
क्षण-क्षण में जी स्वर्ग बना लें 
बँधी हुई मुठ्ठी न भींचें !

अनिता निहालानी
१९ अक्टूबर २०१०  

2 टिप्‍पणियां:

  1. अनीता जी,

    हर बार की तरह एक बार फिर ....एक शानदार रचना.....सच यही तो मुक्ति है....

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  2. क्षण क्षण जियें तो स्वर्ग है
    बंधी हुई मुठ्ठी ना भींचें !
    सुविचार .. शानदार

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