गुरुवार, फ़रवरी 24

ऐसा है आदमी




ऐसा है आदमी


खुद के बनाये जाल में जकड़ा है आदमी
वरना तो चाँद छू के आया है आदमी !

मंजिल की खोज में तो निकला था कारवां
मुड़ के जो राह देखी तनहा था आदमी !

मकसद सभी का साझा जन्नत बने ये दुनिया
फिर क्यों दीवारें दिल में चुनता है आदमी !

सुबह से शाम तक जो कसमें खुदा की खाए
अनजान ही खुदा से रहता है आदमी !

अनिता निहालानी
२४ फरवरी २०११

3 टिप्‍पणियां:

  1. मकसद सभी का साझा जन्नत बने ये दुनिया
    फिर क्यों दीवारें दिल में चुनता है आदमी !

    बहुत सार्थक और प्रेरक रचना..

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  2. मकसद सभी का साझा जन्नत बने ये दुनिया फिर क्यों दीवारें दिल में चुनता है आदमी !
    बहुत प्रेरणा देती हुई सुन्दर रचना ...

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  3. सुबह से शाम तक जो कसमें खुदा की खाए अनजान ही खुदा से रहता है आदमी !
    सभी पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी हैं !

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