स्वपति है सृष्टि अनंत यह
हेम बरसता नभ से भू पर
ह्र्तल विकसित होता लखकर,
शुभ्र हिमालय धवल चोटियाँ
हिम किरीट धारें मस्तक पर !
हिमकर ज्योत्स्ना बिखराता
हारीत दुबका निज नीड़,
स्वाति बूंद टपकी सीपी में
स्वरति में प्रकृति है लीन !
स्वयंमेव ही घटता सबकुछ
स्वयंप्रभा से मंडित दिनकर,
स्वपति है सृष्टि अनंत यह
व्यर्थ जताते स्वत्व यहाँ नर !
स्रोत एक अजस्र शक्ति का
अस्यूत जिसमें है कण-कण,
होकर विस्मित नयन निरखते
प्रतिपल नवजीवन का स्फुरण !
स्फीत गगन का चंदोवा है
स्नात उजास में नित्य धरा,
स्तवन कर रहे अविरत नभचर
सौरभ महिमा का चहुँ बिखरा !
..और इसमें जो खो गया उसे आनंद ही आनंद. अति सुन्दर काव्य.
जवाब देंहटाएंनिहार जी, स्वागत व आभार !
हटाएंआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज शनिवासरीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार, रविकर जी
हटाएंजितना समझ में आया लाज़वाब लगा ...
जवाब देंहटाएंकुछ एक शब्द कठिन लगे जिनकी वजह से ऐसी समस्या आई …।
साल भर बाद ब्लॉग पर वापसी हुई है .... आगे शिकायत का मौका नहीं दूंगा।
आभार
रोहितास जी, स्वागत व आभार, भविष्य में इस बात का ध्यान रखा जायेगा
हटाएंस्वपति है सृष्टि अनंत यह
जवाब देंहटाएंव्यर्थ जताते स्वत्व यहाँ नर !
सत्य।