भीतर एक नदी बहती है
भीतर एक नदी बहती है
लेकर कितने भेद हृदय में,
अंतर को सिंचित करती है !
उद्गम कहाँ ? कौन जानता
अंत भी अनदेखा ही रहता,
निर्मलता उर में भरती है !
तट पर कितने दुर्ग बनाये
युद्ध लड़े हारे जितवाए,
अनथक वह गतिमय रहती है !
सुर सरिता है यूँ भासता
देवलोक से आई भू पर,
मृत अतीत संग ले जाती है !
भावों की हाला भर उर में
मृदु मद्धिम गाती इक सुर में,
मंथर गति से इतराती है !
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह ... क्या बात है
जवाब देंहटाएंअनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने
सादर
ओंकार जी व सदा जी, स्वागत व आभार ,!
हटाएंभीतर एक नदी बहती है
जवाब देंहटाएंलेकर कितने भेद हृदय में,
अंतर को सिंचित करती है !
यह नदी सदा निर्मल बानी रहे तो अच्छा
सुन्दर रचना
रक्षाबंधन की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ !
बहुत सुन्दर है कविता नया पैरहन प्रतीकों का लिए अभिनव बिम्बों का वितान लिए छंद लयऔर ताल लिए :
जवाब देंहटाएंभीतर एक नदी बहती है
लेकर कितने भेद हृदय में,
अंतर को सिंचित करती है !
बढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंरक्षाबन्धन के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंशिवनाथ जी, वीरू भाई व शास्त्री जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
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