दूर सागर से रहेगा
दायरों में जी रहा हो
नहर बन कर जो बहा हो
दूर सागर से रहेगा !
दूर दुःख से भागता हो
सुख ही केवल माँगता हो
पीर मन की ही सहेगा !
स्वयं को ही पोषता हो
आत्म को ही तोषता हो
कब किसी से वह मिलेगा !
धरा को जो शोषता हो
गगन में विष छोड़ता हो
आदमी क्योंकर बचेगा !
भूत को ही रहा ढोता
जिंदगी तज मौत चुनता
कब तलक जीवन सहेगा !
धरा को जो शोषता हो
जवाब देंहटाएंगगन में विष छोड़ता हो
आदमी क्योंकर बचेगा !
सार्थक और सशक्त रचना
बहुत सुन्दर
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर----
आग्रह है --
आजादी ------ ???
ओंकार जी, ज्योति जी व राजीव जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंदायरों में जो जी रहा हो---
दूर सागर से रहेगा
पीर मन की ही सहेगा--
जीवन का गंगाजल==सागर किनारे.
परिपूर्ण--थोडे में बहुत और सब कुछ