शनिवार, अगस्त 16

दूर सागर से रहेगा

दूर सागर से रहेगा


दायरों में जी रहा हो
नहर बन कर जो बहा हो
दूर सागर से रहेगा !

दूर दुःख से भागता हो
सुख ही केवल माँगता हो
पीर मन की ही सहेगा !

स्वयं को ही पोषता हो
आत्म को ही तोषता हो
कब किसी से वह मिलेगा !

धरा को जो शोषता हो
गगन में विष छोड़ता हो
आदमी क्योंकर बचेगा !

भूत को ही रहा ढोता
जिंदगी तज मौत चुनता
कब तलक जीवन सहेगा !



4 टिप्‍पणियां:

  1. धरा को जो शोषता हो
    गगन में विष छोड़ता हो
    आदमी क्योंकर बचेगा !

    सार्थक और सशक्त रचना
    बहुत सुन्दर
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर----

    आग्रह है --
    आजादी ------ ???

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  2. ओंकार जी, ज्योति जी व राजीव जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  3. अनीता जी,
    दायरों में जो जी रहा हो---
    दूर सागर से रहेगा
    पीर मन की ही सहेगा--
    जीवन का गंगाजल==सागर किनारे.
    परिपूर्ण--थोडे में बहुत और सब कुछ

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