गुरुवार, अगस्त 7

नदी उजाले की

नदी उजाले की



जब खो जाती हैं सारी चाहें
मिट जाती हैं तब
 जन्मों की दुःख भरी आहें
पावन हो जाती है निगाहें
फूलों से भर जाती हैं राहें !
उस घड़ी में एक और राज खुलता है
जब हर अँधेरा उजाले की नदी में घुलता है
कि जो चाहो बन सकते हैं
अपनी किस्मत की रेखा बदल सकते हैं
गढ़ सकते हैं अपना कल
पर ऐसा होता है कि
खो चुकी होती है तब तक हर आस
बिखरी रहती है तृप्ति की गंध आस-पास
इस कदर कि उसमें से पार कर
कुछ और पहुँचता ही नहीं भीतर
इतनी पावनता को बींधकर
जगत रह जाता है बाहर
जब परमात्मा घटता है भीतर !


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