मंगलवार, अगस्त 12

पढ़ पाते बूंदों की भाषा

पढ़ पाते बूंदों की भाषा



बरसे मेघा भीगा अंतर
कोंपल-कोंपल खिली हृदय की,
टिप-टिप रिमझिम बूंदों के स्वर
सुन लहरायी धड़कन दिल की !

जाने कौन लोक से लाये
मेघ संदेसा उस प्रियतम का,
झूम रहे हैं पादप, तरुवर
पढ़ पाते बूंदों की भाषा !

हैं सुकुमार पुष्प बेला के
सहज मार वारि की सहते,
नभचर छिपे घनी शाखा में
चकित हुए से अम्बर तकते !

दूर हैं जो प्रियजन निज घर से
स्मृति दिलाती झड़ी सुहानी,
शीतल, निर्मल सी इक आभा
पहुंचे उन तक अनकथ वाणी !

धरा उमगती खिलखिल हँसती
पाकर परस नेह का सजती,
खेली जाती एक नाटिका
तृप्त हो रही तृषा युगों की !

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