गुरुवार, जुलाई 28
मंगलवार, जुलाई 26
ढाई आखर भी पढ़ सकता
ढाई आखर भी पढ़ सकता
उसका
होना ही काफी है
शेष
सभी कुछ सहज घट रहा,
जितना
जिसको भाए ले ले
दिवस
रात्रि वह सहज बंट रहा !
स्वर्ण
रश्मियाँ बिछी हुई हैं
इन्द्रधनुष
कोई गढ़ सकता,
मदिर
चन्द्रिमा भी बिखरी है
ढाई
आखर भी पढ़ सकता !
बहा
जा रहा अमृत सा जल
अंतर
में सावन को भर ले,
उड़ा
जा रहा पवन गतिमय
चाहे
तो हर व्याधि हर ले !
देना
जब से भूले हैं हम
लेने
की भी रीत छोड़ दी,
अपनी
प्रतिमा की खातिर ही
मर्यादा
हर एक तोड़ दी !
क्यों
न हम भी उसके जैसे
होकर
भी ना कुछ हो जाएँ,
एक
हुए फिर इस सृष्टि से
बिखरें,
बहें और मिट जाएँ !
शुक्रवार, जुलाई 22
पावन मौन यहाँ छाया है
पावन मौन यहाँ छाया है
सहज
खड़े पत्थर पहाड़ सब
जंगल
अपनी धुन में गाते,
पावन
मौन यहाँ छाया है
झरने
यूँ ही बहते जाते !
वृक्ष
न कहते फिरते खग से
बन
जाओ तुम साधन मेरे,
मानव
ही केवल चेतन को
जड़
की तरह देखता जग में !
नहीं
आग्रह सूरज करता
खिलें
सुमन क्योंकि वह आया,
पंछी
गायें ही सुबहों को
कोई
न ऐसा शोर मचाया !
सहज
घटा करता है सब कुछ
तृप्त
हुए कर रहे मौज में,
एक
अनाम प्रेम बहता है
सुख
सृजते सुख बांटा करते !
स्वयं
ही मिटता जाता मानव
दूजों
को आहत करने में,
राज
जानती है प्रकृति यह
सदा
पनपती निज आनंद में !
स्वयं
का हित जो कर न पाया
कैसे
हित औरों का साधे,
भीतर
तक जो पगा प्रेम से
वही
बनेगा श्याम की राधे !
कैसी
भूल में उलझा है मन
स्वयं
से पृथक अन्य को जाने
देता
दुःख वह तभी बींधता
अपने
ही दामन में कांटे !
उंगली
भी यदि कभी उठी तो
चोट
स्वयं को ही लगती है,
एक
ही सत्ता व्याप रही है
एक
अजब लीला चलती है !
सहज
हुआ जो यूँ जीएगा
जैसे
फूल खिला करते हैं,
जैसे
मीन तैरती जल में
जैसे
अनिल बहा करते हैं !
श्रम
शून्य हो जाये जब मन
सायास
ही सब घटता हो,
जाने
तभी ध्यान उतरा है
अंतर
में प्रेम बढ़ता हो !
जिसे
हराया हारे उससे
राज
यह जिसने जान लिया है,
सभी
मीत जो मीत स्वयं का
उसने
ऐसा मान लिया है !
गुरुवार, जुलाई 21
अमराई से कोकिल स्वर जब
अमराई से कोकिल स्वर जब
झर-झर झरते हरसिंगार जब
भीतर भी कुछ झर जाता,
कुम्हलाया बासी था जो मन
पल भर में ही खिल जाता !
बही समीरण सुरभि भरे जब
अंतर में कुछ भर जाता,
तंद्रा में अलसाया सा मन
गीत जागरण के गाता !
सोंधी सी जो महक धरा से
पावस ऋतु का दे संदेसा,
सूना सा मन का उपवन झट
शत कमलों से मदमाता !
अमराई से कोकिल स्वर जब
आतुर श्रवणों से टकराता,
गीत जन्म लेते अंतर में
विरह पगा मन अकुलाता !
शुक्रवार, जुलाई 15
यह पल
यह पल
अतीत के अनन्त युग सिमट आते हैं
वर्तमान के एक नन्हे से क्षण में
भविष्य की अनंत धारा भी
छोटा सा यह पल कितना गहरा है
साक्षी है जो बीते बरसों का
और छिपा है जिसमें भावी का हर स्वप्न
हर क्षण अतीत की कोख से जन्मा है और
निज गर्भ में समेटे है कल
नहीं टूटती है यह श्रृंखला
नहीं टूटी है आजतक !
इस पल में ठहरना ही ध्यान है
इस पल में रुकना ही तोड़ देता है हर सीमा
जो घेर लेती है आत्मा को
करने कैद उसकी ही मान्यताओं के घेरे में !
बुधवार, जुलाई 13
होना या न होना
होना या न होना
होकर भी नहीं होता जो
जैसे..मौन आकाश या अदृश्य अनिल
वास्तव में वही होता है
उसके आरपार निकल जाते हैं शब्द
उल्लास और निराशा के
बिना कुछ हलचल किये
जैसे खो जाता है स्वप्न आँख खुलते ही
खो जाती है परछाई
जो होने का भ्रम पैदा करती थी
वह उतना ही सूक्ष्म हो जाता है
जितना कोई शुद्धतम भाव
जो पकड़ में नहीं आता
भीतर एक अहसास भर दिलाता है अनजाना सा
श्वासें हल्की हो जाती हैं
और उनमें किन्हीं अनाम फूलों की गंध भर जाती है
जो इस जगत की नहीं मालूम पड़ती
होने अथवा न होने दोनों से पार
चला जाता है धीरे धीरे हर अहसास
बिखरा हुआ सा लगता है ज्यों सुबह का उजास !
मंगलवार, जुलाई 5
विवाह की वर्षगांठ पर शुभकामनायें
आज एक पुरानी कविता
तुम्हारे कारण
यह जीवन यदि सुंदर स्वप्न सलोना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
इस मन का हर ख्वाब यूँ ही सच होना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
बरसों बीते सँग सँग चलते, नया नया सा लगता हर दिन
कैसे कटता सफर अकेले, रहते कैसे हम तुम बिन
भरा हुआ भावों से इस दिल का हर कोना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
सहज प्रेम तुमने बरसाया, पूरा का पूरा अपनाया
भुला दिया सारी भूलों को, प्रतिपल नव विश्वास दिलाया
नहीं कभी यह बंधन अब ढीला होना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
नयनों से कह दीं बातें, जब अधर कभी सकुचाए
दिल ने दिल का हाल सुना, जब श्रवण नहीं सुन पाए
इस उर को मुस्काना हर पल कभी नहीं रोना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
नहीं कुरेदा कमियों को, बस आदर्शों की ओर बढ़ाया
छूट गयी सारी अकुलाहट, सँग सँग हमने कदम उठाया
दो से एक बनें अब हर बार यही होना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
साथ तुम्हारा अनुपम तोहफा, कुदरत ने जो बख्शा
नहीं उऋन हो पायेगें, न होने की अभिलाषा
पाया जो भी शुभ हमने नहीं उसे खोना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
दीप दीप से जलता ऐसे, प्रेम से प्रेम उपजता
प्रेम तुम्हारा ही अंतर में, मेरा बन कर सजता
इसी प्रेम को हर क्षण तुम पर अब अर्पित होना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
आँखों की चमक, अधरों की हँसी, प्रेम का ही प्रतिबिम्बन
मनः ऊर्जा, कर्म की शक्ति, इसी प्रेम के कारण
हम दोनों के मध्य यही कोई और नहीं होना है, तो सिर्फ तुम्हारे कारण !
बुधवार, जून 29
सच क्या है
सच क्या है
सच
सूक्ष्म है जो कहने में नहीं आता
सच
भाव है जो शब्दों में नहीं समाता
सच
एकांत है जहाँ दूसरा प्रवेश नहीं पाता
सच
सन्नाटा है जहाँ एक ‘तू’ ही गुंजाता
सच
में हुआ जा सकता है पर होने वाला नहीं बचता
सच
एक अहसास है जिससे इस जग का कोई मेल नहीं घटता
सच
बहुत कोमल है गुलाब से भी
सच
होकर भी नहीं होने जैसा है
सच
का राही चला जाता है अनंत की ओर
थामे
हुए हाथों में श्रद्धा की डोर !
मंगलवार, जून 28
स्वप्नों की इक धारा बहती
स्वप्नों की इक धारा बहती
भाव जगें कुछ नूतन पल-पल
शब्दों की इक माल पिरो लें,
प्रीत निर्झरी सिंचित करती
उर का कोना एक भिगो लें !
स्वप्नों की इक धारा बहती
हुए सजग बस दिशा मोड़ दें,
सुख ही जहाँ बरसता निशदिन
पावन ऐसा चौक पूर दें !
कह डालें कुछ पुष्प मौन के
अनगाये से राग बोल दें,
सुरभि शांति गीत अव्यक्त सी
निज जल, उसकी राह खोल दें !
सोमवार, जून 27
माया द्वन्द्वों का है खेल
माया द्वन्द्वों का है खेल
माया मनमोहक अति सुंदर
किन्तु बाँधती मोह पाश में,
सुख का देती सिर्फ छलावा
जीवन कटता इसी आश में !
किन्तु बाँधती मोह पाश में,
सुख का देती सिर्फ छलावा
जीवन कटता इसी आश में !
माया द्वन्द्वों का एक खेल
सुख-दुःख झूले में झुलवाती,
कभी हिलोरें लेता है मन
फिर खाई में इसे गिराती !
माया सदा भुलावा देती
कर्मों में उलझाया करती,
दौड़भाग कर कुछ तो पा लो
सुख से रहना, गाया करती !
मधुर दंश हैं अति माया के
किन्तु क्षणिक बस पल भर के हैं,
मृगतृष्णा या मृग मरीचिका
तुहिन बिंदु से कण भर के हैं !
किन्तु है एक शाश्वत जीवन
नित्य नूतन प्रेम का वर्षण,
मायापति का यदि हो वन्दन
पल-पल वर्धित ऐसा गुंजन !
सुख-दुःख झूले में झुलवाती,
कभी हिलोरें लेता है मन
फिर खाई में इसे गिराती !
माया सदा भुलावा देती
कर्मों में उलझाया करती,
दौड़भाग कर कुछ तो पा लो
सुख से रहना, गाया करती !
मधुर दंश हैं अति माया के
किन्तु क्षणिक बस पल भर के हैं,
मृगतृष्णा या मृग मरीचिका
तुहिन बिंदु से कण भर के हैं !
किन्तु है एक शाश्वत जीवन
नित्य नूतन प्रेम का वर्षण,
मायापति का यदि हो वन्दन
पल-पल वर्धित ऐसा गुंजन !
रविवार, जून 26
ज्यों की त्यों
ज्यों की त्यों
हर
लहर जो सागर से निकलती है
सागर
की खबर देती है
हर
दुआ जो दिल से निकलती है
दिलबर
की खबर ही देगी न ....
और
दुआ ही क्यों, हर बददुआ भी
उसके
बगैर तो आ नहीं सकती
यह बात और है कि
हमें
आदत है मिलावट की
हर
शिशु निर्दोष ही आता है जग में
पर
वैसा ही वापस नहीं जाता
कबीर
की तरह मन को चादर को
ज्यों
की त्यों रखना जो हमें नहीं आता !
शुक्रवार, जून 24
प्रार्थना
प्रार्थना
पुहुप, पवन, पंछी व सितारे
जो भी साथी-संग हमारे,
सुख पायें, हो मंगल सबका
प्रमुदित हो पनपें वे सारे !
जो भी सुंदर है, शुभकर है
आकर्षक, अति मनमोहक है,
केंद्र बने सबके जीवन का
जीवन का जो भी सम्बल है !
सहज, सरल हो जीवन राहें
हों पूर्ण सदा उनकी चाहें
अंतर प्रकाश सदा प्रज्ज्वलित
रहें लक्ष्य की ओर निगाहें !
जो भी साथी-संग हमारे,
सुख पायें, हो मंगल सबका
प्रमुदित हो पनपें वे सारे !
जो भी सुंदर है, शुभकर है
आकर्षक, अति मनमोहक है,
केंद्र बने सबके जीवन का
जीवन का जो भी सम्बल है !
सहज, सरल हो जीवन राहें
हों पूर्ण सदा उनकी चाहें
अंतर प्रकाश सदा प्रज्ज्वलित
रहें लक्ष्य की ओर निगाहें !
मंगलवार, मई 17
अभी
अभी
अभी खुली हैं आँखें
तक रही हैं अनंत आकाश को
अभी जुम्बिश है हाथों में
लिख रही है कलम
प्रकाश को
अभी करीब है खुदा
पद चाप सुनाई देती है
अभी धड़कता है दिल
उसकी झंकार खनखनाती है
अभी शुक्रगुजार है सांसें
भीगी हुईं सुकून की बौछार से
अभी ताजा हैं अहसास की कतरें
डुबाती हुई सीं असीम शांति में
अभी फुर्सत है जमाने भर की
बस लुटाना है जो बरस रहा है
अभी मुद्दत है उस पार जाने में
बस गुनगुनाना है जो छलक रहा है
(वर्तमान के एक क्षण में अनंत छुपा है)
शुक्रवार, मई 13
गुरूजी के जन्मदिन पर
गुरूजी के जन्मदिन पर
शब्द नहीं ऐसे हैं जग में
जो तेरी महिमा गा पायें,
भाव अगर गहरे भी हों तो
व्यक्त हृदय कैसे कर पायें !
'तू' क्या है यह तुम्हीं जानते
अथवा तो ऊपरवाला ही,
क्या कहती मुस्कान अधर की
जाने कोई मतवाला ही !
जाने कितने राज छिपाए
मंद-मंद मुस्कातीं ऑंखें,
अन्तरिक्ष में उड़ता फिरता
मन मनहर लगा नव पांखें !
सबके कष्ट हरे जाएँ बस
यही बसा दिल में तेरे है,
सबके अधर सदा मुस्काएं
गीत यही तूने टेरे हैं !
लाखों जीवन पोषित होते
करुणा सहज भिगोती मन को,
हाथ हजारों श्रम करते हैं
सहज प्रेरणा देती उनको !
तेरा आना सफल हुआ है
भारत का मस्तक दमकाया,
नेहज्योति जला कर जग में
खुशियों का उजास फैलाया !
गुरुवार, अप्रैल 28
खिले रहें उपवन के उपवन
खिले रहें उपवन के उपवन
रिमझिम
वर्षा कू कू कोकिल
मंद
पवन सुगंध से बोझिल,
हरे
भरे लहराते पादप
फिर
क्यों गम से जलता है दिल !
नजर
नहीं आता यह आलम
या
फिर चितवन ही धूमिल है,
मुस्काने
की आदत खोयी
आँसू
ही अपना हासिल है !
अहम्
फेंकता कितने पासे
खुद
ही उनमें उलझा-पुलझा,
कोशिश
करता उठ आने की
बंधन
स्वयं बाँधा न सुलझा !
बोला
करे कोकिला निशदिन
हम
तो अपना राग अलापें,
खिले
रहें उपवन के उपवन
माथे
पर त्योरियां चढ़ा लें !
आखिर
हम भी तो कुछ जग में
ऐसे
कैसे हार मान लें,
लाख
खिलाये जीवन ठोकर
क्यों
इसको करतार जान लें !
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