एक रागिनी है मस्ती की 
एक ही धुन बजती धड़कन में 
एक ही राग बसा कण-कण में, 
एक ही मंजिल, एक ही रस्ता 
एक ही प्यास शेष जीवन में !
एक ही धुन वह निज हस्ती की 
एक रागिनी है मस्ती की, 
एक पुकार सुनाई देती 
दूर पर्वतों की बस्ती की ! 
मस्त हुआ जाये ज्यों नदिया 
पंछी जैसे उड़ते गाते, 
उड़ते मेघा सँग हवा के 
बेसुध छौने दौड़ लगाते ! 
खुले हों जैसे नीलगगन है 
उड़ती जैसे मुक्त पवन है, 
क्यों दीवारों में कैद रहे मन 
परम प्रीत की लगी लगन है ! 
एक अजब सा खेल चल रहा 
लुकाछिपी है खुद की खुद से, 
स्वयं ही कहता ढूंढो मुझको 
स्वयं ही बंध कर दूर है खुद से ! 
 
क्यों दीवारों में कैद रहे मन
जवाब देंहटाएंपरम प्रीत की लगी लगन है !
दिव्य... सुन्दर!
लुकाछिपी...खुद की खुद से....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अनीता जी.
अलमस्त करती सुन्दर प्रस्तुति..अनीता जी.
जवाब देंहटाएंएक अजब सा खेल चल रहा
जवाब देंहटाएंलुकाछिपी है खुद की खुद से,
स्वयं ही कहता ढूंढो मुझको
स्वयं ही बंध कर दूर है खुद से !
सच बात है ....मन मे ही तो सब कुछ है ....
सार्थक रचना ...
शुभकामनायें...!!
लुका छिपी का ये खेल बहुत ही सुन्दर लगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर .... यह लुका छिपी का खेल सारी ज़िंदगी चलता रहता है ...
जवाब देंहटाएंसुंदर गीत वाकई यह रागिनी मस्ती की है.
जवाब देंहटाएंबधाई.
adbhut lekhni adbhut lekhan.
जवाब देंहटाएंखुद की खुद से लुकाछिपी जो समझ ले तो उसको पा ही लेगा..अच्छी लग रही है..
जवाब देंहटाएं