सोमवार, जून 18

एक रागिनी है मस्ती की


एक रागिनी है मस्ती की

एक ही धुन बजती धड़कन में
एक ही राग बसा कण-कण में,
एक ही मंजिल, एक ही रस्ता
एक ही प्यास शेष जीवन में !

एक ही धुन वह निज हस्ती की
एक रागिनी है मस्ती की,
एक पुकार सुनाई देती
दूर पर्वतों की बस्ती की !

मस्त हुआ जाये ज्यों नदिया
पंछी जैसे उड़ते गाते,
उड़ते मेघा सँग हवा के
बेसुध छौने दौड़ लगाते !

खुले हों जैसे नीलगगन है
उड़ती जैसे मुक्त पवन है,
क्यों दीवारों में कैद रहे मन
परम प्रीत की लगी लगन है !

एक अजब सा खेल चल रहा
लुकाछिपी है खुद की खुद से,
स्वयं ही कहता ढूंढो मुझको
स्वयं ही बंध कर दूर है खुद से ! 

9 टिप्‍पणियां:

  1. क्यों दीवारों में कैद रहे मन
    परम प्रीत की लगी लगन है !
    दिव्य... सुन्दर!

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  2. लुकाछिपी...खुद की खुद से....
    बहुत सुन्दर अनीता जी.

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  3. अलमस्त करती सुन्दर प्रस्तुति..अनीता जी.

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  4. एक अजब सा खेल चल रहा
    लुकाछिपी है खुद की खुद से,
    स्वयं ही कहता ढूंढो मुझको
    स्वयं ही बंध कर दूर है खुद से !

    सच बात है ....मन मे ही तो सब कुछ है ....
    सार्थक रचना ...
    शुभकामनायें...!!

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  5. लुका छिपी का ये खेल बहुत ही सुन्दर लगा।

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  6. बहुत सुंदर .... यह लुका छिपी का खेल सारी ज़िंदगी चलता रहता है ...

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  7. सुंदर गीत वाकई यह रागिनी मस्ती की है.

    बधाई.

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  8. खुद की खुद से लुकाछिपी जो समझ ले तो उसको पा ही लेगा..अच्छी लग रही है..

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