गुरुवार, जुलाई 3

मन हिरणी पर कब ठहरी थी


 मन हिरणी पर कब ठहरी थी 

कितनी बार द्वार तक आया
पर पहचान नहीं पाए हम,
उसने अपना वचन निभाया
लेकिन जान नहीं पाए हम !

दस्तक दी, पुकार लगाई
अपनी नींद बड़ी गहरी थी,
उसने खतो-किताबत भी की
मन हिरणी पर कब ठहरी थी !

वृन्दावन से आया जोगी
झोली फैलाई थी उसने,
कृपण बड़ा मन नादां जिसने
किये कपाट बंद हृदय के !

पीरों से संदेश सुनवाये
फिर भी न जागे, न देखा,
विजय दिलाने को आतुर था
बंद पड़ी किस्मत की रेखा !

अब बैठा बस सिर धुनता है
अपनी भूलों को गुनता है,
नजर लगी हर पल द्वार पर
आयेगा सपने बुनता है !

6 टिप्‍पणियां:

  1. कितनी बार द्वार तक आया
    पर पहचान नहीं पाए हम,
    उसने अपना वचन निभाया
    लेकिन जान नहीं पाए हम !
    ...बिल्कुल सच...बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

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  2. कितनी बार द्वार तक आया......अत्यंत गहन और सुन्दर कविता |

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  3. बस यही एक कमी रह जाती है ... मगन रहता है अपने आप में ही इंसान और पहचान नहीं पाता उसे ...

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  4. संध्या जी, संजय जी, कैलाश जी, ओंकार जी , दिगम्बर जी, इमरान व समीर जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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