इंगित हर शै तुझको करती
कैसे हो अभिसार हमारा !
तुम वासी हो नीलगगन के
उस अपंक निरभ्र नीरव के,
माटी के तन में हम रहते
सने पंक में उड़ ना पाते !
कैसे उर स्वीकार हमारा !
अभिराम ! वैकुंठ निवासी
छलते अविरत निज माया से,
अर्घ्य चढ़ाता भक्त बना जो
डर जाता है निज छाया से !
हो कैसे उद्धार हमारा !
अर्थाकुल उर प्रश्न पूछता
उपालम्भ भी एक लिए है,
कृपा का बादल बरस रहा जब
अवलम्ब क्यों और दिए हैं !
किस पर है अधिकार हमारा !
इंगित हर शै तुझको करती
आर्त हुआ हर उर यह जाने,
किन्तु भुलावे में रख स्वयं को
उन्मन सा हर दुःख को माने !
जीवन है उपहार तुम्हारा !
बहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना, बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
रहस्यवाद के मूल में यही जिज्ञासा और मिलन की आकांक्षा समायी हुई है प्रसाद ,महादेवी आदि के काव्य में इसी की अभिव्यक्ति हुई है .
जवाब देंहटाएंइंगित हर शै तुझको करती
जवाब देंहटाएंआर्त हुआ हर उर यह जाने,
किन्तु भुलावे में रख स्वयं को
उन्मन सा हर दुःख को माने !
....अगर यह समझ पायें तो कितना नज़दीक होंगे उसके...बहुत गहन और उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
डा. जेन्नी, डा. मोनिका, रविकर जी, प्रतिभा जी तथा कैलाश जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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