गुरुवार, जुलाई 10

इंगित हर शै तुझको करती

इंगित हर शै तुझको करती



कैसे हो अभिसार हमारा !

तुम वासी हो नीलगगन के
उस अपंक निरभ्र नीरव के,
माटी के तन में हम रहते
सने पंक में उड़ ना पाते !

कैसे उर स्वीकार हमारा !

 अभिराम ! वैकुंठ निवासी
छलते अविरत निज माया से,
अर्घ्य चढ़ाता भक्त बना जो
डर जाता है निज छाया से !

हो कैसे उद्धार हमारा !

अर्थाकुल उर प्रश्न पूछता
उपालम्भ भी एक लिए है,
कृपा का बादल बरस रहा जब
अवलम्ब क्यों और दिए हैं !

किस पर है अधिकार हमारा !

इंगित हर शै तुझको करती
आर्त हुआ हर उर यह जाने,
किन्तु भुलावे में रख स्वयं को
उन्मन सा हर दुःख को माने !

जीवन है उपहार तुम्हारा !

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना, बधाई.

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  2. बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार आपका-

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  3. रहस्यवाद के मूल में यही जिज्ञासा और मिलन की आकांक्षा समायी हुई है प्रसाद ,महादेवी आदि के काव्य में इसी की अभिव्यक्ति हुई है .

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  4. इंगित हर शै तुझको करती
    आर्त हुआ हर उर यह जाने,
    किन्तु भुलावे में रख स्वयं को
    उन्मन सा हर दुःख को माने !
    ....अगर यह समझ पायें तो कितना नज़दीक होंगे उसके...बहुत गहन और उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...

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  5. डा. जेन्नी, डा. मोनिका, रविकर जी, प्रतिभा जी तथा कैलाश जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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