मंगलवार, अप्रैल 21

राम

राम  

ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते, 
सदा वसन्त राम अंतर में, 
संध्या के स्वर सदा गूँजते 
रात्रि-दिवस की हर बेला में !

कोना-कोना होता गुंजित 
कोकिल के मधुरिम गीतों से,
सदा महकता उर का उपवन 
ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !

समता का शुभ अनिल विचरता 
रस की खानों से मधु रिसता,
शशधर की शीतल आभा से 
भीगा हुआ प्रेम भी झरता !

उर सरिता के ठहरे जल में 
प्रातः अरुण निज मुखड़ा धोता,
दिन भर विचरण करता नभ में 
 आ पुनः वहीं विश्रांति पाता  !

2 टिप्‍पणियां:


  1. उर सरिता के ठहरे जल में
    प्रातः अरुण निज मुखड़ा धोता,
    दिन भर विचरण करता नभ में
    आ पुनः वहीं विश्रांति पाता !
    बहुत बहुत सुंदर कल्पना

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