सत्य होती कल्पना भी
स्वप्न में हम सृष्टि रचते
निज भयों को रूप देते,
खुद सिहरते, व्यर्थ डरते
जागकर फिर खूब हँसते !
मनोमयी, भावनामयी
जाग कर भी सृष्टि रचते,
निज सुखों को पोषते या
दुःखों की गाथा बनाते !
शब्द साझे हैं सभी के
उन्हीं से हम मित्र बनते,
चुन नुकीले शब्द सायक
शत्रुता अथवा रचाते !
कल्पना थी जो मनों की
आज उसने रूप धारा,
डोलते मन व्यर्थ खुद को
डाल देते अतल कारा !
हैं कहीं हथियार जैविक
आदमी ने ही बनाये,
सत्य होती कल्पना भी
वक्त यह सबको सिखाये !
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (10-04-2020) को "तप रे मधुर-मधुर मन!" (चर्चा अंक-3667) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएं