रविवार, अगस्त 24

सत्य से पहचान

सत्य से पहचान 



झूठ से ही परिभाषित करते हैं  
‘स्वयं’ को जब हम
तब छले जाते हैं बार-बार
“जो है” जब उस पर नजर नहीं जाती
‘जो होना चाहते हैं’ की चाह में जले जाते हैं
“जो है” शुभ है, सुंदर है, सत्य है
इसे भुलाकर
घेर लेते हैं अपने चारों पर एक असत्य
व्यर्थ ही कैद होते हैं पिंजरों में
और झूठी आशा में जिए जाते हैं  
 ‘स्वयं’ को करते सीमाओं में कैद
 मन, कभी अहंकार के हाथों
अपने ही मूल को डसते हैं
जाने कैसा रोग लगा है
‘जो है’ स्वीकार करना नहीं सीखा
सच के आईने में स्वयं को अभी नहीं देखा
मृण्मय है जो माया
उसको तो हमने बहुत सजाया
सम्मान के लोभ में  
खुद को कहीं पीछे छोड़ आये
एक बेहोशी के आलम में
स्वप्नों की दुनिया बसाना चाहते हम
सत्य से हर बार बच कर निकल आये 
समिधा बनेगा अंतर का हर भाव 
यहाँ तक कि हर दुराव व छिपाव 
स्वयं की अग्नि तभी होगी दीप्त 
छा जायेंगे मेघ चिदाकाश में 
सत्य बरसेगा !
अतीत, वर्तमान, व भविष्य 
गायेंगे जब समवेत स्वरों में 
जीवन की ऋचाएं 
मन वर्तिका जलेगी ज्ञानाग्नि में 
यज्ञ पुरुष सत्य बन प्रकटेगा !




15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर व दृढ़ भाव ...!!मन प्रसन्न हो गया पढ़कर !!

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  2. आपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 25 . 8 . 2014 दिन सोमवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !

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  3. मानव सबसे अधिक स्वयं के द्वारा ठगा जाता है । और उसे इसका पता भी नही चलता ।

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  4. असत्य का अन्ध्कार छ्टेगा तो सत्य का प्रकाश चहुं दिशा फ़ैलेगा।

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  5. सुन्दर रचना जो जैसा है उसकी स्वीकृति खुद की हर हाल में स्वीकृति है।

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  6. मृगमरीचिका---हर कोई भाग रहा है स्वर्ण-हिरन के पीछे--जानते हुए कि ऐसा कोई जीव इस सम्सार में नहीम है.
    सुंदर व गहन भाव लिये रचना.

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  7. विडम्बना यही है कि आज कोई भी अपनी वर्त्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं है, दिवास्वप्न के पीछे भाग रहा है ! क्या कहते हैं ये सपने ?
    Happy Birth Day "Taaru "

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  8. गहन भाव लिए ...बेहतरीन प्रस्‍तुति ...आभार

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  9. स्वयं को जैसे हैं वैसे स्वीकारना ही सत्य है और सरल भी । असत्य तो बहुत झमेले करवाता है।

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  10. संध्या जी, गिरिजा जी, आशीष जी, संध्या जी, अनुशाजी, मन जी, आशा जी, प्रतिभा जी, संजय जी, कालीपद जी, यशवंत जी, कविता जी, अभिषेक जी, शशि जी, शास्त्री जी, वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !

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