रविवार, जुलाई 20

अम्बर सा जो ढांपे जग को

अम्बर सा जो ढांपे जग को



अंक लिए सारी सृष्टि को
वह अनंत यूँ डोल रहा है,
अंतर गुहा का वासी भी है
निज रहस्य को खोल रहा है !

अंतरैक्य जब घटता है
सिंधु बिंदु में झर-झर जाता,
अम्बर सा जो ढांपे जग को
लघु उर में वह अजर समाता !

अक्षत, अगरु, अग्नि स्फुलिंग सी  
ज्योति अखंड बिखेरे भीतर,
अतल, अचल, अमर, अदम्य
भरे आस्था, प्रीत निरंतर !

अनुप्राणित कण-कण को करता
 है कोई अनुबंध अनकहा,
रहे अगोचर कहने भर को
हस्ताक्षर कहीं दिख रहा !

स्वयं अनुरक्त नजर में रखता
सहस भुजाओं वाला कहते,
 अनुरागी अंतर को मथता
प्रेमिल अश्रु यूँ न बहते ! 

7 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना ... प्रकृति की अनुपम छटा बिखर गयी जैसे ....

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  2. स्वयं अनुरक्त नजर में रखता
    सहस भुजाओं वाला कहते,
    अनुरागी अंतर को मथता
    प्रेमिल अश्रु यूँ न बहते ! बेहतरीन शब्द चित्र।

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  3. अनुप्राणित कण-कण को करता
    है कोई अनुबंध अनकहा,
    रहे अगोचर कहने भर को
    हस्ताक्षर कहीं दिख रहा !

    उस की लीला मेरी लीला एक वो मैं मैं वो अहम ब्रह्मास्मि

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  4. दिगम्बर जी, देवेन्द्र जी, मनोज जी, व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. अनुपम साक्षात्कार का अद्भुत चित्रण किया आपने -सूक्ष्मानुभूति की विलक्षणता दर्शनीय है !

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  6. उत्कृष्ट रचना ..या केवल आत्मसात किया..

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