बुधवार, अप्रैल 29

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे 

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे 
कहने को कोई शब्द न मिले 
नत मस्तक हो जाना ही होगा 
उस अनाम के आगे 
जो परे है वाणी के 
मौन में वह स्वयं का पता दे रहा है 
हमसे हमारा ‘अहम’ ले रहा है 
जो निःशब्द में सहज ही मिलता है
शब्दों के अरण्य में खो जाता है 
जैसे खो जाती है सूर्य किरण घने वनों में 
जहां वृक्षों की शाखाएँ सटी हैं इस तरह 
कि सदियों से नहीं पहुँची सूर्य की कोई किरण 
नहीं छुआ वहां की माटी को अपने परस से 
जहाँ काई और नमी में डेरा बना लिया है 
कीट-पतंगों ने 
मन में शब्दों का जमघट ‘उसे’ आने नहीं देता 
जो सदा ही उजास बनकर आसपास है 
इस सन्नाटे में उसी से भरना होगा मन का कलश 
और छलक-छलक कर वही रिसेगा 
भर जायेगा कण-कण में तन के 
ऊर्जा की एक लहर बन कर समो लेगा जब 
यह सत्य तभी स्पष्ट होगा कि 
एक लहर के सिवा क्या हैं हम ....? 

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