गुरुवार, जून 24

समाधि

समाधि

मन के पीछे.. पीछे.. पीछे..
चलो वहाँ पर ऑंखें मींचे,
जहाँ विचार न कोई उठता
भाव भी कोई नहीं उमड़ता !

जहाँ प्रकाश का फूल खिला है
सुर का भीना स्रोत मिला है,
उस गह्वर में पल भर रुकना
वहीं अगोचर का हो लखना !

उठती वहीं से 'मैं' की तान
गति पाते हैं पांचों प्राण,
वहीं से डलता जाल जगत में
न चाहो तो समेटो पल में !

उस ही का विस्तार हुआ है
भाव और विचार हुआ है,
वही चाह न चाह कर फंसता
वही मुक्त हृदय से हँसता !

लीला रचता निज शक्ति से
खो जाता विमुख भक्ति से,
कोई आकर याद दिलाता
खुद को फिर खुद में पा जाता !

पुलक वही आँखों में अश्रु
धनक वही पावों में घुंघरू,
गीत वही कंठों में सरगम
प्रिय वही अंतर में प्रियतम !

अनिता निहालानी
२३ जून १०१०

गुरुवार, जून 17

मीरा

मीरा

नृत्य समाया हर मुद्रा में
उर में वीणा की झंकार
कंठ उगाए गीत मधुरिमा
कहाँ छिपा था इतना प्यार ?

आधी रात उजाला बिखरा
नयनों में ज्यों भरी पुकार
जागे जागे स्वप्न हो गए
लेता रूप कोई आकार !

पुलक उठे है पोर-पोर में
धड़क रहा है यूहीं दिल
कोई खबर भोर की लाए
क्या करीब है अब मंजिल ?

इच्छा, ज्ञान, क्रिया शक्ति के
पार हुआ मन अब मुक्ति के
खुले पट सब स्पष्ट हो गया
पुष्प खिले हैं जब भक्ति के !

नर्तक कौन कौन कवि है
कौन सुनाये सुनता वीणा
कौन तलाश रहा मंजिल को
कोई भी नही वहाँ दीखता !

एक तत्व का खेल है सारा
वही प्रिय वही प्रियतम प्यारा
स्वयं ही गाये झूमे स्वयं ही
प्रेम गली में न दो का पसारा !

अनिता निहालानी
१७ जून २०१०

शुक्रवार, जून 11

सदगुरु के जन्मदिन पर

सदगुरु

तू शमा है प्यार की इक 
दिन रात मधुरिम जल रही
दे पुकार दुलार की फिर 
हर बात दिल की सुन रही I

तू हमें रस्ता दिखाए
अमरत्व की धरे मशाल 
भटक जाएँ हम नहीं पथ
 हो शेष न मन में मलाल I

तू सदा है साथ अपने
क्यों खले दूरी विरह की
बैठ दिल में हँस रहा तू
खोल कर पीड़ा गिरह की I

मौन भीतर का जगाए
खनखनाती हँसी भी तू
सुबह का उगता उजाला
रात्रि की विश्रांति भी तू I

प्रेम से यह जग बना है
प्रेम से ही हर तपन है 
प्रेम ही कारण घृणा का
प्रेम से होती  जलन है I

एक ऐसा प्रेम है तू
मुक्त है जो हर व्यथा से
नित्य नूतन नित्य बढ़ता
विलग रहता हर प्रथा से I

भक्ति बन के जो निखरता
मांगता ना सदा देता
तृप्त हुआ मन जो भीतर
तभी ऐसा प्रेम घटता I

एक ऐसी भी खुशी है
एक रस आकाश सी जो
मधुर ऐसी तृप्ति भी है
शांत सरस प्रकाश सी जो I

उस अलख से झर रही है
अनवरत अविरत सहज ही
चेतना की मदिर ज्वाला 
जल रही भीतर सहज ही I

है अटल  नीले गगन सा
हर दिशा में व्याप्त है तू
जुड़ गया तू हर किसी से
एकता से प्राप्त है तू I

द्वैत कब तेरी नजर में
एक का है खेल सारा
मिट गए फिर भेद सारे
दुई  का टूटा पसारा I

चाँद, सूरज दो नयन में
सृष्टि का एकत्व झलके
प्रेम झलके शांति छलके
परम इक आनंद ढलके I

अनिता निहालानी
११ जून २०१०

गुरुवार, जून 10

भरी दोपहरी

भरी दोपहरी

खिले गुलाब, मालती, बेला, फुदक रहा खगों का मेला
रह-रह गूंजे कलरव मद्धम, कहीं भ्रमर का अविरत सरगम I

हरियाली का गांव अनोखा
अंतरिक्ष में नील झरोखा
गौरेया उड़ आती ऐसे
शीतल कोई हवा का झोंका

आड़े-तिरछे डाल वृक्ष के, झुरमुट कहीं दीर्घ बांस के
हल्की-हल्की तपन पवन में, छुपा सूर्य घन पीछे नभ में I

अनगिन फूल हजारों वर्ण
भांति-भांति के धारे पर्ण
अमलतास का पीतवर्ण लख
रक्तिम स्वाद गुलमोहर का चख

प्रकृति मोहक भरी दोपहरी, सुंदरता हर सूं है बिखरी
रह-रह मौन टूटता प्रहरी, गूंज उठे कोई स्वर लहरी I

नन्हा सा एक नील पुष्प भी
कह जाता सब मौन खड़ा सा
पोखर से उगती कुमुदिनी
या फिर कोई कमल बड़ा सा

गोल, नुकीले, सूक्ष्म, कंटीले, धानी, हरे, बैंगनी, पीले
जाने कितने आकारों में, पत्र वृक्ष के ह्ज्जारों में I

कोमल स्पर्श कभी तीक्ष्ण भी
शीतल मौसम कभी उष्ण भी
प्रकृति का भंडार अपरिमित
अनंत वहाँ सब, कुछ न सीमित

लुटा रहा दोनों हाथों से, दूर कहीं से कोषाध्यक्ष
नहीं खत्म होने को आता, पुरुष छुपा प्रकृति प्रत्यक्ष I

अनिता निहालानी
१० जून २०१०

मंगलवार, जून 1

ग्रीष्म की एक संध्या

ग्रीष्म की एक संध्या

छू रही धरा को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए गगन पे देखो झूमते से श्याम घन !

दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कहीं कोकिल गा रही !

कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें !

छू रही बालों को आके करती अठखेलियाँ
जाने किसे छू के आयी लिये रंगरेलियाँ !

चैन देता है परस प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठा चितेरा कूंची नभ पर चलाता !

झूमते पादप हँसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पात खिलखिला गुड़हल मगन !

गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी !

है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो
दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो !

अनिता निहालानी
१ जून २०१०