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सोमवार, जनवरी 17

अट्टाहस बन गूंजे

अट्टाहस बन गूंजे
गुनगुनी सी साधना छोड़ें आज धधकने दें ज्वाला,
प्यास कुनकुनी प्यास ही नहीं आज छलकने दें प्याला !

भीतर छिपी अनंत शक्तियाँ प्रभु का अकूत खजाना
जितना चाहें उसे उलीचें खत्म न होगा आना !

तीन गुणों में डोल रहे हम जन्मों से दीवाने
कभी ज्ञान के पुतले बनते कभी बने अनजाने !

ऊपर उठ के खुद में आयें जीवन को खिलने दें
जन्म उसे दें जो भीतर है खुद से खुद मिलने दें !

आज उठें, छलांग लगाएं बहुत हुआ है इंतजार अब
आस पास की हवा बदल दें जागेगा जन-जन कब !

गूंज उठे कण-कण तन-मन का ऊर्जा की गुंजार उठे
कोष-कोष में सोया जो अब जागेगा पुकार उठे !

पुलक बने, कभी हास्य अनोखा, अट्टाहस बन गूंजे
शक्ति अपार भरी जो भीतर मधुर हास बन गूंजे !

कर्मठता के बीज उगायें श्रम के जल से सींचें
हाथ बढ़ें, गिरतों को उठायें, न रहें मुट्ठियाँ भींचे !

देवत्व जगे, है सोया जो जाने कब से भीतर
लिये गर्भ में उसे ढो रहे भार बना जो अंतर !

बिखरे, बहे, फ़ैल जाये वह सृष्टि के कण-कण में
आज चेतना की चिंगारी फूट पड़े जन जन में !

अब बातों का समय नहीं काम करें हम डटकर
वही बचेगा इस युग में जो न बैठा थक कर !

और नहीं तो उतरें-चढ़ें सीढियाँ ही जीने की
फूल उगायें, पतंग उड़ायें वजह तो हो जीने की !

अनिता निहालानी
१७ जनवरी २०११