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सोमवार, जुलाई 28

अंश

अंश 

सुबह-सुबह जगाया उसने 

कोमलता से, 

छूकर मस्तक को,

जैसे माँ जगाती है 

अनंत प्रेम भरे अपने भीतर 

याद दिलाने, तुम कौन हो ?

उसी के एक अंश 

उसके  प्रिय और शक्ति से भरे  

बन सकते हो, जो चाहो 

रास्ता खुला है, 

जिस पर चला जा सकता है 

 ऊपर से बहती शांति की धारा को 

धारण करना है 

जिसकी किरणें छू रही हैं

 मन का पोर-पोर 

अंतर के मंदिर में 

अनसुने घंटनाद होते हैं 

  जलती है ज्योति

  बिन बाती बिन तेल 

हो तुम चेतन 

इस तरह, कि अंश हो

उसी अनंत का !


बुधवार, फ़रवरी 12

जीवन स्रोत

जीवन स्रोत 


उस भूमि पर टिकना होगा 

जहाँ प्रेम कुसुमों की गंध भरे भीतर 

 सत्य की फसल उगती है 

जहां अभेद के तट हैं 

शांति की नदी बहती है 

जब जगत में विचरने की बारी  आये 

तब भी उस भूमि की याद मिटने न पाये 

जहां एकत्व है और स्वतंत्रता 

अटूट शाश्वत समता 

जो अर्जित की गई है 

पूर्णता की धारा से 

जहाँ आश्रय मिलता है 

हर तुच्छता की कारा से 

वहीं ठिकाना हो सदा मन का 

जो स्रोत है हर जीवन का ! 



रविवार, नवंबर 3

शांतता

शांतता 


आज हम थे और सन्नाटा था 

सन्नाटा ! जो चारों और फैला था 

बहा आ रहा था न जाने कहाँ से 

अंतरिक्ष भी छोटा पड़ गया था जैसे 

शायद अनंत की बाहों से झरता था !


आज मौन था और थी चुप्पी घनी 

सब सुन लिया जबकि 

कोई कुछ कहता न था 

कैसी शांति और निस्तब्धता थी उस घड़ी 

जैसे श्वास भी आने से कंपता था!


 कोई बसता है उस नीरवता में भी

उससे मिलना हो तो चुप को ओढ़ना होगा 

छोड़कर सारी चहल-पहल रस्तों की 

मन को खामोशी में इंतज़ार करना होगा 

यह जो आदत है पुरानी उसकी 

बेवजह शोर मचाने की 

छोड़ कर बैठ रहे पल दो पल 

 उस एकांत से मिल पायेगा तभी !


रविवार, अक्टूबर 20

यात्रा

यात्रा 


मन के पार

एक अजाना लोक छिपा है 

 जहाँ से रह-रह कर 

आहट आती है शांति की 

गूँज सुनायी देती है 

किसी अन्य काल की 

यात्री को आगे बढ़ना है 

और आगे 

जिसने अनंत को चुन लिया 

फिर विश्राम कैसा 

स्वयं के अप्रतिम रूप से 

अपरिचय कैसा 

अपने घर लौटने में संकोच कैसा 

सहेजने में अपनी विरासत को 

गुरेज़ कैसा 

माँ के चरणों में बैठने से 

हम क्यों चूक जायें 

पिता के स्नेह पर हम क्यों न

अपना अधिकार जतायें 

जो शाश्वत है उससे क्यों न नाता जोड़ें 

माया में बंधकर ख़ुद से मुख मोड़ें 

अनमोल हीरे हमने छिपाये है 

व्यर्थ पत्थरों को ख़रीद लाये हैं 

जब जागो, तभी सवेरा है 

उस का तो लगता हर घड़ी फेरा है ! 



बुधवार, जुलाई 17

पीड़ा


पीड़ा 

पीड़ा अभिशाप नहीं

वरदान बन जाती है 

जब सह लेता है कोई 

धैर्य और दृढ़ता से

अपरिहार्य है पीड़ा

यदि देह को सताती है 

अधिक से अधिक मन तक

हो सकती है उसकी पहुँच

पर 'स्वयं' अछूता रह जाता है 

पीछे खड़ा 

वही असीम शक्ति देता है 

वह स्रोत है 

वही लक्ष्य भी 

हर संदेह से परे 

जहाँ मिलेगा परम आश्रय 

मिलता आया है जीवन भर 

शांति व आनंद के क्षणों में 

सुख-दुख के प्रसंगों में 

वह संबल भरता है भीतर 

पीड़ा तप है 

व्यर्थ नहीं है यह 

इसका प्रयोजन है

शायद यह आत्मशोधन है !

गुरुवार, मई 30

जब तक

जब तक 


खुश रहना और ख़ुशी बाँटना 

ये दो ही करने योग्य काम हैं जगत में 

जब तक यह समझ में नहीं आता 

मन उदास रहता है 

प्रेम देना और प्रेम पाना 

बस ये दो ही लक्षण हैं स्वस्थ मन के 

जब तक ये दिखायी न दें 

मन निराश रहता है 

शांत रहना और अशांत न बनाना 

ये दो ही अर्थ देते हैं जीवन को 

जब तक यह भान न हो 

मन परेशान रहता है 

निर्भय रहना और अभय देना  

बस दो ही गुण हैं जिन्हें धारण करना है 

जब तक ये न मिलें 

मन हैरान रहता है 

जो ‘मैं’ हूँ सो ‘तू’ है 

यही ज्ञान है सच्चा 

जब तक यह भान न हो 

मन अनजान रहता है !


रविवार, जनवरी 21

राम

 राम 

एक शब्द नहीं है राम 

न ही कोई विचार 

बाल्मीकि के मन का 

भाव जगत की वस्तु भी 

नहीं है तुलसी के 

परे है हर शब्द, भाव व विचार से 

एक अमूर्त, निराकार 

जिसने भर दिया है 

उत्साह और उमंग 

शांति और आनंद 

ख़ुशी कोई विचार तो नहीं 

एक अहसास है 

वैसे ही राम उनके हैं 

जो महसूस करते उन्हें 

अपने आसपास हैं 

हर घड़ी हर मुहूर्त से परे 

वे सदा थे सदा हैं 

वे प्रतिष्ठित हैं 

हमें इसका अहसास करना है 

राममंदिर में विराजित 

राम लला की मूरत में

ह्रदय के 

विश्वास और श्रद्धा का 

रंग भरना है ! 



गुरुवार, दिसंबर 21

भारत का प्रकाश फैलेगा

 भारत का प्रकाश फैलेगा 

युद्धों की ज्वाला में जलता 

विश्व छिपा है अंधकार में,  

 भारत का प्रकाश फैलेगा 

शांति सिखाता हर विचार में ! 


पर्यावरण की धुन जिन्हें है 

राकेट-गोले बम दागते, 

घायल करके धरती का दिल 

मासूमों का रक्त बहाते ! 


 आश्रय में रहे प्रकृति माँ के

मानव का विकास तब संभव,  

बहे अनंत कृपा अनंत की 

जिसकी कृति यह अति सुंदर भव !


 नये वर्ष में जागे विवेक

विध्वंस न हो नव सृजन घटे,

हो उत्कर्ष सदा मूल्यों का 

साहचर्य का उल्लास बढ़े !


शुक्रवार, सितंबर 22

संग-साथ

 संग-साथ 


प्रेम का अदृश्य वस्त्र 

ओढ़कर हम चलते हैं 

जीवन के उतार-चढ़ाव के मध्य 

जो कभी भी पुराना नहीं होता 

तो कोई साथ-साथ चलता है 

हर धूप हर तूफ़ान से 

सामना करते हुए 

वह हमें देखता है !

शांति की एक धार 

भिगो जाती है 

जब हमारी दुआओं में 

फ़िक्र सारी कायनात की 

भर जाती है

एक माँ के दिल की तरह 

तब हम उसे अपने भीतर 

धड़कता हुआ पाते हैं !

जो जानता है बारीकियाँ  

हर शै की 

वह पढ़ लेता है 

छोटी से छोटी ख्वाहिश 

जो भीतर जन्म लेती है 

और हम मुक्त होकर 

विचरते हैं जगत में 

जैसे कोई बादल 

अनंत आकाश में 

 या मीन सागर में !


मंगलवार, अक्टूबर 18

भाव सधे तो प्रेम खिलेगा



भाव सधे तो प्रेम खिलेगा 

जितना दौड़ो कम पड़ता है
यह जग अंधा एक कुआँ है,
कभी तृप्त  कब हो सकता यह
सदा अधूरा ही मिलता है !

दो पल थम कर खुद सँग हो ले
जिसने पाया, भीतर पाया,
नहीं छोड़ना कुछ भी बाहर
जिसको तृष्णा तजना आया !

कर-कर के भी जो ना मिलता
शांत हुए से सहज मिलेगा,
कुछ भी नहीं शांति के आगे
भाव सधे तो प्रेम खिलेगा !

जीवन का यही महा रहस्य
जिसने छोड़ा उसने पाया,
सहज रहा जो जैसा भी है
उसने साथ स्वयं का पाया !

मानव होने का आशय क्या
निज के भीतर खुद को पाना,
तोड़ के मन, बुद्धि के घेरे
आत्म शक्ति से प्रीत लगाना !

शुक्रवार, मई 27

फूल शांति का

फूल शांति का


झुक जाने में ही विश्राम है 

सदा मौन में मिलता राम है 

‘और चाहिए’ की ज़िद छोड़कर 

जो मिला है उसे स्वीकार लें 

विचार सागर की लहरों में 

डूबते हुए मन को, उबार लें 

  भीतर सहज ही किनारा मिलता है 

 फूल शांति का खिलता है 

जो देता है जीवन को दिशा 

उमग आती भीतर अनंत ऊर्जा 

विशेष होने की कोई चाह न रहे  

‘कुछ बनो’ की धारा जब न बहे  

थम जाये भीतर शोर मन का 

 एकांत में उससे मिलन घटे  

जिसकी शरण में है कायनात  

 दे रहा जो हर इक को हयात  !