भेद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भेद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, मार्च 23

भीतर कोई राह देखता

भीतर कोई राह देखता 


ऊपर वाला खुला राज है

फिर भी राज न खुलने वाला, 

देखा ! कैसा चमत्कार है 

या फिर कोई गड़बड़ झाला !


कण-कण में वह व्याप रहा है 

छिपा हुआ सा फिर भी लगता, 

श्वास-श्वास में वास उसी का 

दर्शन हित मीलों मनु चलता !


ढूँढ रहा जो गर थम जाये

जाये ठहर चाहने वाला,

भीतर कोई राह देखता 

 जग जाता गर सोने वाला !


देख लिया ? नहीं, देख रहा है !

इस पल के बाहर न मिलता, 

पल-पल सृष्टि नवल हो रही 

नित्य ही सब कुछ रचा जा रहा !


राज अनोखा जाना जिसने

वही ठगा सा खड़ा रह गया, 

ख़ुद को देखे या अनंत को 

भेद न कोई बड़ा रह गया !


मंगलवार, मार्च 18

भेद न उसका जाना जाता

भेद न उसका जाना जाता
लगता है ख़ुद नाच रहे हैं 
पर सब यहाँ नचाये जाते, 
भ्रम ही है  सब बोल रहे हैं 
कोई बुलवाता भीतर से !
 
शब्द निकलते अनचाहे ही
अनजाने ही भाव उमड़ते, 
 कोई और जगाने वाला
कर्म यहाँ करवाये जाते !

जब तक कोई हो न बाँसुरी 
तब तक काटा-छीला जाता, 
 जब तक शून्य नहीं हो जाता 
तब तक मनस तराशा जाता !

कर्म कहें या दैव उसे हम 
उसके हाथों की कठपुतली, 
कुछ भी नहीं नियंत्रण में है 
  चालबाज़ियाँ सभी व्यर्थ ही !

 पल में हुआ धूल धुसरित वह 
अभी गगन पर जिसे बिठाया, 
ज्ञानी-ध्यानी माना मन को
अज्ञानी सा कभी दिखाया !
 
मेधा कितना ज़ोर लगाये 
भेद न उसका जाना जाता, 
‘मैं’ को तजे बिना जीवन में 
सच का सान्निध्य नहीं  मिलता !


मंगलवार, जुलाई 4

गुरु ज्ञान से

गुरु ज्ञान से


जग जाये वह तर ही जाये 

रग-रग में शुभ ज्योति जलाये, 

धार प्रीत की सदा बरसती 

बस उस ओर नज़र ले जाये !


काया स्वस्थ हृदय आनंदित 

केतन भरे रहें भंडारे, 

हर प्राणी हित स्वस्ति प्रार्थना 

निज श्रम से क़िस्मत संवारें 


अधरों पर हो नाम उसी का

नित्य नियम उर बाती बालें, 

कान्हा वंशी  डमरू शंकर 

सर्वजनों हित प्रेम सँभाले 


भेद मिटे अपनों ग़ैरों का 

काम सभी के सब आ जायें, 

जीवन यह आना-जाना है 

जो पाया है यहीं लुटायें !


सोमवार, अक्टूबर 19

मौन का उजास

 मौन का उजास 

जब चुप हो जाती है 

मन की टेर

नहीं रह जाती कोई झूठी पहचान 

गिर जाते हैं सारे भेद 

जाति, धर्म, वर्ण की दीवारें 

टूट कर बिखर जाती हैं 

जब सारे आवरण उतार 

केवल होना मात्र शेष रह जाता है 

उस एकाकी क्षण में होना ही

 उसकी छुअन से स्पर्शित कर जाना है 

जो हर जगह है 

और वह छुअन ही प्रेम से भर जाती है 

जब तक दुई है मन में 

बंटा  है दो में 

एक को छोड़ना दूसरे को पाना है 

तब तक शब्दों का जगत है 

जब झर जाते हैं सारे द्वंद्व 

तभी वह मौन उगता है 

जिसे भर देता है अस्तित्त्व 

असीम आनंद से ! 


रविवार, अप्रैल 26

भेद - अभेद

भेद - अभेद 


शब्दों को मार्ग दें तो वे 
भावनाओं के वस्त्र पहन 
 बाहर चले आते हैं 
यदि राह में कण्टक न हों 
बेहिसाब इच्छाओं के 
प्रमाद के पत्थर न रोक लें उनका मार्ग 
तो विमल सरिता से वे बहते चले आते हैं 
धोते हुए अंतर्जगत 
और बाहर भी उजास फैलाते हैं 
शब्दों में छुपा है ऋत
और वाग्देवी ने उन्हें तराशा है 
मानव के पास अस्तित्त्व का 
अनुपम उपहार उसकी भाषा है 
इन्हें मैला न होने दें  
इन्हें तोड़ने का नहीं जोड़ने 
का साधन बनाएं 
मानवता को सुलाने के लिए लोरी न बनें ये 
इनमें क्रांति की चिंगारी सुलगाएँ
कि गिर जाएँ मिथ्या दीवारें 
खो जाएँ सारे भेद 
एक गुलदस्ते की तरह 
नजर आये दुनिया 
घटे अभेद !

गुरुवार, अप्रैल 2

दुनिया बदल रही है


दुनिया बदल रही है 


दुनिया बदल रही है 
पुलिस पकड़ा रही है गुलाब 
आरती उतारती है 
टीका लगाती है माथे पर 
क्योंकि नहीं हुआ है टीकाकरण अभी तक कोरोना के खिलाफ 
गरीबों के प्रति अति संवेदनशील हो गयी हैं
 सरकारें और सामान्य जन भी 
खुल गए हैं लंगर और भोज.. 
दूर - दूर पांत में बिठाकर परोसा जाता है 
नेता और अभिनेता दे रहे हैं दान दिल खोल कर 
आज हर जीवन निर्भर है दूसरे के जीवन पर 
दान का महत्व, आज तक किताबों में पढ़ा था 
निर्धनों की सेवा का भाव कभी क्या मन में जगा था !

टीवी पर नहीं होती गलाफाड़ बहसें 
नहीं लगते आरोप-प्रत्यारोप एक-दूसरे पर 
कांग्रेसी और बीजेपीयन में भेद नहीं करता वायरस 
न हिन्दू और मुस्लिम में 
मिटता जा रहा है हर भेद अब 
खो गया है अतीत मानवता का 
ट्रम्प को चुनाव का भय नहीं सताता
भविष्य से रह गया है जैसे दूर का कोई नाता 

उतर गया है बच्चों के सिर से परीक्षा का बोझ 
खिल गए हैं उनके चेहरे, निखर आयी है सोच  
ज्ञान के प्रति सहज आकांक्षा जगी है 
रटकर कापी पर उगलने के लिए नहीं 
वे सीखने के लिए पुस्तकें खोलते हैं 
सुंदर कलाओं के माध्यम से महामारी के खिलाफ जंग छेड़ते हैं 
नदियों में मछलियाँ नहीं कुलबुलातीं 
पशु - पंछी मुक्त हैं.. सड़कों पर, मैदानों में 
खुले गगन में, जहाँ लोहे की मशीनें 
शोर करती हुईं नजर नहीं आतीं 

क्या वाकई बदल रही है दुनिया ! 

बुधवार, फ़रवरी 12

जाने क्यों


जाने क्यों

फूलों के अंबार जहाँ हम काँटों को चुन लेते, सुंदरता की खान जहाँ कुरूपता हम बुन लेते ! देव जहां आतुर नभ में आशीषों से घर भरने, स्वयं को ही समर्थ मान लगते बाधा से डरने ! भेद जरा जाना होता इस अनंत जग में आकर, किसके बल पर टिका हुआ किसे रिझाते गा गाकर ! सुख की आशा में डोले झोली में दुःख भर जाता, ‘मन’ होने का ढंग यही कुछ ना उसे और आता !

शुक्रवार, मार्च 29

इस उमंग का राज छुपा है



इस उमंग का राज छुपा है 


जाने क्यों दिल डोला करता
नहीं किसी को तोला करता,
जब सब उसके ही बंदे हैं
भेद न कोई भोला करता !

नयना चहक रहे क्यों आखिर
अधरों पर स्मित ठहरी कब से,
जन्मों का क्या मीत मिला है
थिरक रहे हैं कदम तभी से ?

रुनझुन सी बजती है उर में
गुनगुन सी होती अंतर में,
छुप-छुप किसके मिले इशारे
निकल गया दिल किसी सफर में !

टूटी-फूटी गढ़ी इबारत
हाल बयां क्योंकर हो पाये,
मीरा भी दिखा नहीं पायी
राम रतन नजर कहाँ आये !

सोमवार, फ़रवरी 12

‘कुछ’ न होने में ही सुख है





‘कुछ’ न होने में ही सुख है 


‘कुछ’ होने की जिद में अकड़ा
फिर-फिर दुःख को कर में पकड़ा,
इक उलझन में हरदम जकड़ा
 क्यों न हो दिल टुकड़ा-टुकड़ा !

कुछ होकर भी देख लिया है
कुछ भी जैसे नहीं किया है,  
तृषित अधर सागर पिया है
 दिल का दामन नहीं सिया है !

‘कुछ’ ना होने में ही सुख है
मिट जाता जन्मों का दुःख है,
मुड़ा जिधर समीर का रुख है
सब उसका जो अंतर्मुख है !

सब कुछ ही हो जाना होगा
भेद हरेक मिटाना होगा,
लब पर यही तराना होगा
दिल तो वहीं लगाना होगा !

शुक्रवार, अक्टूबर 13

जिन्दगी हर पल बुलाती



जिन्दगी हर पल बुलाती

किस कदर भटके हुए से
राह भूले चल रहे हम,
होश खोया बेखुदी में
लुगदियों से गल रहे हम !

रौशनी थी, था उजाला
पर अंधेरों में भटकते,
जिन्दगी हर पल बुलाती
अनसुनी हर बार करते !

चाहतों के जाल में ही
घिरा सा मन बुने सपना,
पा लिये जो पल सुकूं के
नहीं जाना मोल उनका !

दर्द का सामां खरीदा
ख़ुशी की चूनर ओढ़ाई,
विमल सरिता बह रही थी
पोखरी ही उर समाई !

भेद जाने कौन इसका
बात जो पूरी खुली है,  
मन को ही मंजिल समझते
आत्मा सबको मिली है !


शनिवार, दिसंबर 19

कैसे यह बात घटी


कैसे यह बात घटी


सबको घर जाना है
आज नहीं कल यहाँ
 उतार वस्त्र देह का
हो जाना रवाना है !

भुला दिया जीत में
कभी जगत रीत में
मीत सभी हैं यहाँ
कोई न बेगाना है

सबको घर जाना है !

कैसे यह बात घटी
लक्ष्य से नजर हटी
स्वयं को ही खो दिया
मिला न ठिकाना है !

भेद जो भी दीखते
ऊपर ही सोहते
एक रवि की किरण
बुने ताना-बाना है !

बुधवार, जून 29

भीतर दोनों हम ही तो हैं


भीतर दोनों हम ही तो हैं

बाहर जितना-जितना बांटा
भीतर उतना टूट गया,
कुछ पकड़ा, कुछ त्यागा जिस पल
भीतर भी कुछ छूट गया !

यह निज है वह नही है अपना
जितना बाहर भेद बढ़ाया,
अपने ही टुकड़े कर डाले
भेद यही तो समझ न आया !

जिस पल हम निर्णायक होते
भला-बुरा दो दुर्ग बनाते,
भीतर भी दरार पड़ जाती
मन को यूँ ही व्यर्थ सताते !

दीवारें चिन डालीं बाहर
खानों में सब फिट कर डाला,
उतने ही हिस्से खुद के कर
पीड़ा से स्वयं को भर डाला !

द्वंद्व बना रहता जिस अंतर
नहीं वह सुख की श्वास ले सके,
कतरा-कतरा जीवन जिसका
कौन उसे विश्वास दे सके !

इक मन कहता पूरब जाओ
दूजा पश्चिम राह दिखाता,
इस दुविधा में फंस बेचारा
व्यर्थ ही मानव मारा जाता !

बाहर पर तो थोड़ा वश है
लाभ पकड़ हानि तज देंगे,
भीतर दोनों हम ही तो हैं
जो हारे, दुःख हमीं सहेंगे !

भीतर दुई का भेद रहे न
तत्क्षण एक उजाला छाये,
एकसूत्रता बाहर भाती
भीतर भी समरसता भाए !