सोमवार, अप्रैल 30

बुद्ध का निर्वाण


बुद्ध का निर्वाण


एक बार देख मृत देह
हो गया था बुद्ध को वैराग्य अपार
हजार मौतें नित्य देख हम
बढ़ा रहे सुविधाओं के अंबार
जरा-रोग ग्रस्त देहों ने उन्हें
कर दिया दूर भोग-विलास से
हम विंडो शॉपिंग के भी बहाने हैं ढूँढ़ते
बढ़ती जा रही है दरार आज
 धनी और निर्धनों के मध्य
जितनी बढ़ती है संख्या आलीशान महलों की
 बढ़ जातीं उसी अनुपात से
शहर में झुग्गी-झोपड़ियाँ भी !

राजा जब बन जाता था परिव्राजक
तो खुल जाते भंडार भी वणिकों के
आम जनता के लिए
पर जहाँ शासक बैठा हो बना अट्टालिकाएं
वहाँ बटोरने लगते हैं व्यापारीगण अपनी तिजोरियां
कुछ भी नहीं कह पाता राजा
सिवाय आँख मूंद लेने के...

ली थी वन की राह बुद्ध ने
मात्र अपने निर्वाण के लिए ?
नहीं, मंशा थी कुछ और
नहीं है धन ही सब कुछ दुनिया में
दान का महत्व सिखाने हित
वे बन बैठे थे स्वयं दानी
सेवा का उपदेश ही नहीं दिया
वर्षों तक विहार किया
हम जो देखना ही भुला बैठे हैं गावों की ओर
खत्म कर रहे हैं वनों को
होकर दूर बुद्ध की शिक्षाओं से
एक बार फिर से वैराग्य की अलख तो जगानी ही होगी
भोगी बने मनों को योग की सच्ची राह दिखानी होगी
तभी मनेगी सच्ची बुद्ध पूर्णिमा !

गुरुवार, अप्रैल 26

कोई देख-देख हँसता है



कोई देख-देख हँसता है

आँख मुँदे उसके पहले ही
क्यों ना खुद से नजर मिला लें,
अनदेखे, अनजाने से गढ़
भेद अलख के मोती पा लें !

कितना पाया पर उर रीता
झांकें, इसकी पेंदी देखें,
कहाँ जा रहा आखिर यह जग
तोड़ तिलिस्म जाग कर लेखें !

बार-बार कृत-कृत्य हुआ है
फिर क्यों है प्यासा का प्यासा,
किस कूँए से तृषा बुझेगी
आखिर इसको किसकी आसा !

सुंदरता को बाँध न पाया
देखे कितने सागर, पर्वत,
कहीं और कुछ छूटा जाता
सदा बनी पाने की हसरत !

सुख का आकांक्षी यह उर है
जाने किसकी राह जोहता,
पा पाकर भी कुछ ना पाया
ज्यों तामस में बाट टोहता !

मंजिल पर बैठा राही जब
राह पूछता बन अनजाना,
कोई देख-देख हँसता है
जैसे खेले इक दीवाना !

शुक्रवार, अप्रैल 20

अनगाया गीत एक





अनगाया गीत एक 


हरेक के भीतर एक छुपी है अनकही कहानी
और छुपा है एक अनगाया गीत भी
एक निर्दोष, शीतल फुहार सी हँसी भी
कैद किसी गहरे गह्वर में
बाहर आना जो चाहती
आसमान को ढक ले
एक ऐसा विश्वास भी छुपा है
और... प्रेम का तो एक समुन्दर है तरंगित
किन्तु हरेक व्यस्त है कुछ न कुछ करने में
अथवा तो कुछ न कुछ बटोरने में..
कहानियाँ और गीत सबके हिस्से में नहीं आते
हँसना भी भला कितनों के लिए जरूरी है
प्रेम और विश्वास की भली कही
प्रेम पर भी किसी का विश्वास नहीं रहा अब तो
तो कौन खोजेगा उसे
जो भीतर छिपा है एक खजाने सा अनमोल
पर जिसका नहीं है कइयों की नजरों में कोई मोल !


गुरुवार, अप्रैल 19

बहना भूल गया यमुना जल



बहना भूल गया यमुना जल


माधव, मुकुंद, मोहन, गिरधर
नाम-नाम में छुपे प्रीत स्वर,
प्रेम डोर में बाँध, विरह की
परिभाषा गढ़ डाली सुंदर !

युग बीते गूँजे वंशी धुन
ठहर गया है जैसे वह पल,
वन-उपवन भी चित्र लिखित से
बहना भूल गया यमुना जल !

अनुपम, अद्भुत एक अलोना
वैकुंठ से उतर विहंसता,
अंग-अंग से करुणा झरती
नयनों से जो जादू करता !

एक पुकार सुनी अंतर की
राधा ने निज मन दे डाला,
खग, मृग, गौएँ, तरु, तृण वन के  
झूमे, सँग डोले मतवाला !

पाँव धरे, पावन भयी भूमि
उस भूखंड झुकाते माथा,
शत सहस्त्र कंठों ने गायी
थके नहीं गा गाकर गाथा !


गुरुवार, अप्रैल 12

पल-पल सरक रहा संसार



पल-पल सरक रहा संसार

कौन यहाँ किसको ढूंढे है 
किसे यहाँ किधर जाना है,
खबर नहीं कण भर भी इसकी 
पल भर का नहीं ठिकाना है !

जोड़-तोड़ में लगा है मनवा
बुद्धि उहापोह में खोयी,
हर पल कुछ पाने की हसरत 
जाने किस भ्रांति में सोयी !

दिवास्वप्न निरन्तर देखे 
मन ही स्वप्न निशा में गढ़ता,
नहीं मिला आधार स्वयं का 
लक्ष्यहीन सा रहे विचरता !

एक तिलिस्म महामाया का 
घुमा रहा जिसको करतार
एक व्यूह में भ्रमण चल रहा 
पल-पल सरक रहा संसार !


बुधवार, अप्रैल 11

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल


पैमाना हम ही तय करते
जग को जिसमें तोला करते,
कुदरत के भी नयन हजारों
भुला सत्य यह व्यर्थ उलझते !

जो चाहा है वही मिला है
निज हाथों से जीवन गढ़ते,
बाधाएँ जो भी आती हैं
उनमें स्वयं का लिखा ही पढ़ते !

दुःख के बीज गिराए होंगे
कण्टक हाथों में चुभते हैं,
मन संकीर्ण राह का राही
भय के जब दानव डसते हैं !

सुख की महज आस भर की थी
जब ग्लानि के पुल बांधे थे,
आशंकाएं भी पाली थीं
महल गढ़े थे सुख स्वप्नों में  !

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल
जिसने राज हृदय में जाना,
जो अबूझ  कर रहा इशारे
उस दर पाया सहज ठिकाना !

सोमवार, अप्रैल 9

टूट गया जड़ता का बंधन



टूट गया जड़ता का बंधन
कुसुम उगाया उपवन में जब
मन मकरन्द हुआ जाता है,
प्रीत भरी इक नजर फिराई
अंतर् भीग-भीग जाता है !

खंजन  ख़ुशी बिखेरें गाकर
सहज उड़ान भरा करते हैं,
स्वीकारा हँसकर जब जग को
मधुमय गीत झरा करते हैं !

राग-रागिनी जहाँ गूँजती
प्राणों में जग गया स्पंदन,
सुरभित हुई कायनात यह
टूट गया जड़ता का बंधन !

दरिया चला सौंपने स्वयं को
सागर का अनुयायी बनकर
मुक्त हुआ जा पहुँचा नभ में
सहज पवन-रवि अंक में चढ़कर !

स्वप्न सजाये भर नयनों में
सृष्टि पूर्ण करने को आतुर,
बादल दौड़े चले आ रहे
सुनी पुकार लगाये दादुर !

व्यर्थ हुई कम्पन श्वासों की
निकट स्रोत अमृत का बहता,
जगी प्रार्थना अंतर् में जब
कण विषाद का भी न रहता !