गुरुवार, अगस्त 30

चंदा ज्यों गागर से ढलका



चंदा ज्यों गागर से ढलका

खाली है मन बिल्कुल खाली
एक हाथ से बजती ताली,
चेहरा जन्म पूर्व का जैसे
झलक मृत्यु बाद की जैसे !

ठहरा है मन बिल्कुल ठहरा
मीलों तक ज्यों फैला सेहरा,
हवा भी डरती हो बहने से
श्वासों पर लगा है पहरा !

हल्का है मन बिल्कुल हल्का
नीलगगन ज्यों उसमें झलका,
जो दिखता है किन्तु नहीं है
चंदा ज्यों गागर से ढलका !

है अबूझ सब जान रहा है
कहना मुश्किल, मान रहा है,
पार हुआ जो जिजीविषा से
खेल मृत्यु से ठान रहा है !



मंगलवार, अगस्त 28

वीना श्रीवास्तव जी का काव्य संसार - खामोश ख़ामोशी और हम में


हिंदी दिवस पर जन्मी वीना श्रीवास्तव खामोश खामोश और हम की अगली कवयित्री हैं. वर्तमान में रांची में रहने वाली वीना जी स्वतंत्र लेखन करती हैं व ब्लॉग लिखती हैं. इनकी नौ कवितायें इस सकलंन में सम्मिलित हैं. इनकी कवितायें रूमानी प्रेम व सपनों की बातें करती हैं, प्रकृति की सुंदरता की छवि बिखेरती हैं और जिंदगी के कई पहलुओं को धीरे से उठाती हैं.

इनकी पहली कविता है - अस्तित्त्व बोध जिसमें कवयित्री प्रियतम की याद को ही अपने अस्तित्त्व बोध का कारण बताती है

मीठी सी याद
गुनगुनाती है
जब भी
खिलखिलाते हैं तारे
पुरवाई देती हैं मधुर स्वर
...
ख़ामोशी में गूंजती
तुम्हारी आवाज
निकल जाती है
चीरती हुई दिल को
बह जाती है
..
तुम्हारे होने का अहसास
तुम्हारी यादों से है
मेरे जीवन का अस्तित्त्व
मेरे होने का बोध
...

दूसरी कविता चाहत में प्रेम की अनछुई सी पुलक का अहसास होता है –

हर दिन की
चाहत में
होता है एक खुशनुमा रात का अरमां
रात आये
दिन भी झूमता-गाता
मदमस्त पवन के
झोंकों में
सिंदूरी रंग भरकर
छुप जाये
रात के सीने में
...
..
बिखरा दे फिर
जगमग किरणें
..
चाँद की रोशनी में
बिखर जाये
संगमरमर की मूरत
और ढल जाये

जरूरी है तुम्हारा बरसना भी एक प्रेम कविता है जिसमें मरुस्थल, पपीहा और बादल के प्रतीकों का सहारा लेकर प्रेम की तीव्रता को दर्शाया है

तुम नहीं जानती
मैं कितना प्यासा हूँ
दूर दूर तक फैला
ये मरुस्थल
झुलसा रहा है मुझे
...
पपीहे को क्यों भाता है
स्वाति नक्षत्र का जल
..
उसे स्वाति नक्षत्र चाहिए
मुझे तुम
...
हरियाली बिखरने के लिये
जरूरी है तुम्हारा बरसना
...
कोना कोना प्यार में कवयित्री बड़ी सहजता से मन में जगी ईर्ष्या की भावना के दंश से बचने के लिये प्यार को उपाय बनाती है

जब जब
मन के किसी कोने में
पांव पसारती है ईर्ष्या
मोतियों की तरह
बिखर जाती हैं खुशियाँ
...
जो डसती है
सुख-चैन
इसलिए मन का कोना कोना
..
भर दो प्यार से
..
फलने फूलने दो
सुखों को

इंतजार में भी इस विशाल कायनात में होती पल पल की प्रतीक्षा को आधार बना कर प्रेम का ही इजहार किया गया है

ये इंतजार किसका है
रात को दिन का या दिन को रात का
..
कान सुनने को बेचैन हैं
वो मीठी बातें
या बातों को इंतजार है
उन कानों का
जहाँ वह घोलेगी मिश्री
..
जीवन के प्रति गहन प्रेम दर्शाता है जीवन खत्म नहीं होता

अभी खत्म नहीं हुआ है
इंतजार
आंच बाकी है
चूल्हे में
फांस बाकी है
दिल में
चुभन की टीस है
पांव में
माँ की सीख है
जीवन में
..
नन्हें हाथों को तलाश है
दामन की
दिनों की तलाश है
महीनों की
..
इंतजार अनवरत
क्योंकि
जीवन कभी खत्म नहीं होता

मैं सदा जीवित रहूंगी में कवयित्री स्वप्न और वास्तविकता में भेद बताती हुई जीवन की शाश्वतता का चित्रण करती है -

तुम क्यों जी रहे हो
स्वप्नों के संसार में
क्या रखा है
सपनों में
..
हकीकत में नहीं दे पायोगे
स्वप्नों सा जीवन
...
मेरा जीवन है
तुम्हारे स्वप्नों में
..
मैं सदा जीवित रहूंगी
तुम्हारे स्वप्नों में

प्रेम का एक अभिन्न पक्ष है विरह तुम नहीं आये में विरह की आग में तप कर निखर आये प्रेम का चित्रण है

सब कुछ आता है
तुम नहीं आते
ये दिन ये रातें
आती-जाती हैं
एक के बाद एक
नैनों में बहते
आंसुओं में
दिल डूबता उतराता है
लेकिन तुम नहीं आते
..
..
रोज होती है सुबह
कोयल की कूक के साथ
..
बीत जाती हैं शामें ..
रात की रानी को महकाकर
तुम नहीं आते
..
ये जीवन भी
गुजरेगा यूँ ही
रिसेगा यूँ ही
नही होगा अंत
क्योंकि तुम नहीं आये

मौन से बातें करती कवयित्री अंत में ख़ामोशी में ही जीवन का उदेश्य पाती है-

ख़ामोशी
तू क्यों मुझे भाती है
..
मैंने  गुनगुनाया है तुझे
..
जीया है तुझे
भीड़ में
गाया है तन्हाइयों में
भिगोया है तुझे
आंसुओं में
...
चाँदनी रात में
खिलखिलाई है
किरणें बनकर
तपती धूप में
टपकी है पसीना बनकर
,..
क्या बताऊँ
क्या-क्या मिला तुझसे
जीवन मिला
और
जीने का उद्देश्य भी

वीना श्रीवास्तव की इन सरल भाषा में रची छंद मुक्त कविताओं को पढ़ते हुए कभी भीतर मौन पसर जाता है, कभी कोई भूली बिसरी याद मन को हिला जाती है तो कभी प्रकृति अपने सौंदर्य को साकार करती प्रतीत होती है. आशा है सुधी पाठक जन भी इन्हें पढ़कर आह्लादित होंगे. 

शनिवार, अगस्त 25

कैसी थी वह दूरी


कैसी थी वह दूरी

तुमसे दूरी क्या हुई
गाज़ हम पे गिर गयी
जाने किस बेसुध क्षण में
आग दिल में लग गयी
वह तो अच्छा हुआ जाना
घर तुम्हारा करीब था
दरवाजा भी खुला था
खुश अपना नसीब था
गर नहाये न होते
तुम्हारी याद की बारिश में
 सुलगते रहते तुम्हारे दर तक
यह भी क्या संयोग था
भूले थे छाता घर पर 

गुरुवार, अगस्त 23

कवयित्री राजेश कुमारी का काव्य संसार- खामोश ख़ामोशी और हम


   
मुज्जफरनगर, उत्तरप्रदेश में जन्मी राजेश कुमारी जी, जियो और जीने दो.. में विश्वास रखती हैं. संगीत व चित्रकला में भी इनकी रूचि है. अतीत से सीख लेकर वर्तमान को सुधारतीं और भविष्य की ओर सजगता से कदम बढ़ातीं हैं. खामोश ख़ामोशी और हम में इनकी छह कवितायें हैं, सभी विविध विषयों पर लिखी हुईं. किसी में प्रेम की असीमता का वर्णन है जैसे, प्रिये हम कितनी दूर निकल आये, जमाने की ठोकर ने चलना सिखाया में जीवन की कटु सच्चाई का, भ्रूण हत्या का विरोध करती एक कविता है मुझको दुनिया में आने दो और बालिका शिक्षण को बढ़ावा देती देखो शिखर सम खड़ा हुआ, परमात्मा की कृपा का बखान करती मृग तृष्णा और जीवन का लेखाजोखा लेती जीवन आख्याति....

ना अब कुंठाओं के घेरे हैं
ना मायूसियों के साये
मैं पदचाप सुनूं तेरी
तू पदचाप सुने मेरी
...
बाँहों में बाहें थाम प्रिये
हम कितनी दूर निकल आये
देखो क्या मंजर है प्रिये
नभ धरा का मस्तक चूम रहा
तिलस्मी हो गयी दिशाएं
नशे में तृण तृण झूम रहा
रजनी हौले से आ रही
तारों भरा आंचल फैलाये
बाँहों में बाहें थाम प्रिये
हम कितनी दूर निकल आये
..
चल हाथ पकड़ मेरा प्रिये
अब अपने पथ पर बढ़ जाएँ
मैं पदचाप सुनूं तेरी
तू पदचाप सुने मेरी

समाज में कितने बच्चे और बच्चियां समय से पहले बड़े हो जाने को मजबूर हैं, बाल मजदूरी करने को विवश बच्चे अपना बचपन जी भी नहीं पाते कि समाज उनके हाथों में औजार पकड़ा देता है...

निष्ठुर हाथों ने बचपन छुड़ाया
जमाने की ठोकर ने चलना सिखाया
अभी खिसकना सीखा था
वक्त ने कैसे बड़ा किया
...
कुछ समाज की दोहरी चालों ने
कुछ दोगली फितरत वालों ने
समय से पहले बड़ा किया
अभी खिसकना सीखा था
वक्त ने कैसे बड़ा किया

बालिका भ्रूण हत्या आज समाज की ज्वलंत समस्या है, भारत के कितने ही राज्यों में लिंग का अनुपात विषम हो गया है. कवयित्री इस पर कलम उठाती है-

मैं तेरी धरा का बीज हूँ माँ
मुझको पौधा बन जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमें ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो

...
जंगल उपवन खलिहानों में
हर नस्ल के पुष्प महकते हैं
स्वछन्द परिंदों के नीड़ों में
दोनों ही लिंग चहकते हैं

प्रकृति के इस समन्वय का
उच्छेदन मत हो जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमें ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो

...
नारी अस्तित्त्व के कंटक का
मूलोच्छेदन करना होगा
तेरे दूध पर मेरा भी हक है
दुनिया को ये समझाने दो

अगली कविता कवयित्री ने उन माता-पिता के नाम की है जिन्होंने सर्वप्रथम बालिका शिक्षण की शुरुआत की.

देखो शिखर सम खड़ा हुआ
सकुचाया सा डरा डरा
..
जाने कब हो जाये हनन
सघन तरु की छाया में
इक नन्हा पौधा खड़ा हुआ
..
बीते कितने पतझड़ बसंत
हुआ कद उसका और बुलंद
...
अरि आलोचक मूक बनाये
अपने दम पर खड़ा हुआ
..
कहाँ भीरुता दुर्बल तन
अब बन गया वो तरु सघन
मेरी धरोहर मेरा वंश
उसके ही दम से चला हुआ

मृग तृष्णा शीर्षक कविता अपनी विषय वस्तु और सहज प्रवाह के कारण सीधा हृदय में प्रवेश करती है
मृग तृष्णा में लिप्त
अनवरत गति से भागते हुए
जब थक कर चूर होकर
मायूसी के मरुस्थल में लेट जाती हूँ
..
पूछती हूँ प्यासी हूँ कहाँ जाऊँ
उसने हथेली पे मेरी
एक जल की बूंद गिरा दी
अगर तू है
तो तुझे सुनना चाहती हूँ
उसने बादलों की गर्जना सुना दी
...
कैसे बनाऊँ अपना स्वर्ण महल
उसने चोंच में तिनका लेकर
जाती हुई चिड़िया दिखा दी
..
मैंने कहा अब विश्राम करना चाहती हूँ
उसने तरु की एक कोमल
पत्ती बिछा दी

जीवन आख्याति में कवयित्री जीवन की यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर पल भर ठहरती है और आगे बढ़ जाती है

दुनिया में आया तो जननी प्यारी मिली
वात्सल्यता की देवी
जीवन संचारी मिली
बाल्यावस्था में खेल खिलौने
पुस्तक और मित्रों की यारी मिली
किशोरावस्था में भ्रमित, जिज्ञासु  मन
और प्रश्नों की श्रंखला
विस्मयकारी मिली
युवावस्था में दिल की
संगत न्यारी मिली
..
प्रौढावस्था में कुछ परिपक्व अनुभव
कुछ संचयन आबंटन की हकदारी मिली
..
अतिम चरण में
मौत जीवन में भारी मिली

राजेश कुमारी जी कि इन कविताओं को पढ़ते हुए उनके सामाजिक सराकोरों से दो चार होते हुए और जीवन यात्रा का आकलन करते हुए एक सुखद अहसास हुआ, आशा है सभी सुधी पाठक जन भी इनका रसास्वादन करेंगे.