ब्रह्म मुहूर्त का कोरा पल
सोये हैं अभी पात वृक्ष के
स्थिर जैसे हों चित्रलिखित से
किन्तु झर रही मदिर सुवास
छन-छन आती है खिड़की से
निकट ही कंचन मौन खड़ा है
मद्धिम झींगुर गान गूँजता
पूरब में हलचल सी होती
नभ पर छायी अभी कालिमा
एक शांत निस्तब्ध जगत है
ब्रह्म मुहूर्त का कोरा पल
सुना, देवता भू पर आते
विचरण कर बाँटते अमृत
कोई हो सचेत पा लेता
स्वर्गिक रस आनंद सरीखा
जैसे ही सूरज उग आता
पुनः झमेला जग का जगता