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सोमवार, फ़रवरी 1

ब्रह्म मुहूर्त का कोरा पल

ब्रह्म मुहूर्त का कोरा  पल 

सोये हैं अभी पात वृक्ष के 
स्थिर जैसे हों चित्रलिखित से 
किन्तु झर रही मदिर सुवास 
छन-छन आती है खिड़की से 

निकट ही कंचन मौन खड़ा है 
मद्धिम झींगुर गान गूँजता 
पूरब में हलचल सी होती 
नभ पर छायी अभी कालिमा 

एक शांत निस्तब्ध जगत है 
ब्रह्म मुहूर्त का कोरा  पल 
सुना, देवता भू पर आते 
विचरण कर बाँटते अमृत 

कोई हो सचेत पा लेता 
स्वर्गिक रस आनंद सरीखा 
जैसे ही सूरज उग आता 
पुनः झमेला जग का जगता 
 

मंगलवार, नवंबर 8

रेशम के फाहों सी नर्म नर्म धूप


रेशम के फाहों सी नर्म नर्म धूप

(१)

पूरब झरोखे से झांक रही
धूप की गिलहरी
 उतरी बिछौने पर
जाने कब बरामदे से
उड़न छू हो गयी...
धूप वह सुनहरी !

सर्दियों की शहजादी
भा गयी हर दिल को
पकड़ में न आये
चाहे लाख हम मनाएं
देर से जगती है
धूप सुकुमारी !

(२)
तन मन को दे तपन
अंतर सहला गयी
महकाती धूप
कलियाँ जो सोयीं थीं
कोहरे की चादर में
लिपटीं जो खोयीं थीं
जाने किन स्वप्नों में
जागीं, जब छू गयी
गुनगुनी सी धूप !

मोती जो अम्बर से
छलके थे ओस बन
चमचम खिल गा उठे
मौन गीत झूम
सँग ले उड़ा गयी
अलसाई धूप
नन्हें से गालों पर
फूल दो खिला गयी
मनभाई धूप !



बुधवार, नवंबर 2

भीतर अनछुआ सा कोई


भीतर अनछुआ सा कोई

माना कि ‘मैं’ जरूरी है
होना जिसका मजबूरी है,
लेकिन बाधा न बन जाये
रब से इतनी ही दूरी है !

परिधि पर ‘मैं’ घूमा करता
रहे केन्द्र पर वही साक्षी,
टूटे सीपी, घोंघे ऊपर
गहराई में मिलते मोती !

मधुर स्मृतियाँ, चाह मदिर सी
ऊपर-ऊपर मन आंगन में,
भीतर अनछुआ सा कोई
पूर्ण तृप्ति है उस पावन में !

एक ही है जब नहीं है दूजा
कौन करेगा किसकी पूजा,
सत् ही सत् है भीतर-बाहर
सबका इक आधार न दूजा !

बस भीतर विश्वास घना हो
वही बिछाए पलकें बैठा,
जितनी प्रीत हमारे भीतर
मैं भी उसके दिल में पैठा !  

शुक्रवार, जुलाई 1

मौन मात्र पर अपना हक है


मौन मात्र पर अपना हक है 

एक हवा का झोंका आकर
पश्चिम वाली खिड़की खोले, 
दिखी झलक मनहर फूलों की
हिला गया पर्दा जोरों से !  

पूरब वाले वातायन से
देखो पवन झंकोरा आया,
सँग सुवास मालती की ला
झट कोना-कोना महकाया !

एक लहर भीतर से आयी
कोई आतुर मन अकुलाया,
एक ख्याल कहीं से आया
देखो उसका उर उमगाया !

हवा नशीली कभी लुभाती
तप्त हुई सी कभी जलाती,
लेकिन उस पर जोर है किसका
हुई मस्त वह रहे सताती !

ऐसे ही तो ख्यालात हैं
जिनकी भीड़ चली आती है,
जरा एक को पुचकारो तो
सारी रेवड़ घुस आती है !

पहले जो अहम् लगते थे
अब उन पर हँसी आती है,
ऐसे दलबदलू के हाथों
क्या लगाम फिर दी जाती है !

 मौन मात्र पर अपना हक है 
सदा एकरस, सदा मीत ये,
उसमें रह कर देखें जग को
बढ़ती रहे नवल प्रीत ये !