सोमवार, मई 30

इस वर्ष


यह तो होना ही था....

तेज उमस भरी गर्मी  
बरसा नहीं था बादल कुछ दिनों से
पर आज सुबह
रिमझिम ने जगाया नींद से
सहला गयी शीतल पवन
दे गयी कोई संदेशा
बेला, मालती की सुवास
अजाने लोक का
कोई कह गया कान में चले आओ
मंदिर की बढ़ गए कदम
 खुदबखुद अल सुबह  
खुलने लगे कपाट जिसके
और... झरने लगी प्रार्थनाएं
किसी गहरे मानस से
प्रार्थनाएँ... जो खुद के लिये नहीं थीं
सर्वे भवन्तु सुखिनः....
अचानक मधुर हो गया पोर-पोर
यह क्या हो रहा था
शुभकामनाएँ दे रहे थे पंछी और
पहचान के वे लोग भी
जिनसे उम्मीद नहीं थी...
अपने आप हाथ उठ गए
सेवइयों की ओर
और तैयार हो गयी मीठी खीर...
दनादन कोई बदलवा गया
सारे कुशन कवर... मेजपोश...
जाने कौन पाहुना आ जाये
यह सब हुआ
 अभी तो दिन का पहला पहर है
आगे-आगे देखिये होता है क्या....
क्योंकि मैंने इस वर्ष  
हवा की छुवन.. और जग की सौगातों को
ईश्वर का उपहार माना है
प्यार, हँसी और हर शुभ को त्योहार माना है...
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि
आज मेरा....

अनिता निहलानी
३० मई २०११    






शुक्रवार, मई 27

ब्लॉग जगत के सभी कवियों को समर्पित


कवि से

स्वप्न शील, हे रचनाकार !
उर में कोटि राज छिपाए,
गीत गा रहे युगों-युगों से
अंतर कोष भरा रह जाये !

सृजन शील, हे कलाकार !
नित नूतन तुम शब्द ढालते
नेह मदिरा भर-भर अविरत
प्यासे अधरों पर वारते !

सत्यशील, तुम हो द्रष्टा !
दिव्य दृष्टि पाकर हो हर्षे,
अनावृत तत्व हो जाता
उदघाटित सत्य जब बरसे !

हृदय तुम्हारा कोमल कलि सा
किन्तु शिला सा धैर्य धरे,
सुख में भीगा, कंपा हर दुःख में
निष्कंटक करते पथ चलते !

नहीं ध्येय जग माने तुमको
यही काम्य हर अश्रु लूँ हर,
नहीं हेय जगत में कोई
देखूँ जड़ को भी चेतन कर !

अनिता निहालानी
२७ मई २०११


बुधवार, मई 25

संध्या राग


संध्या राग

मसूर की दाल के से
गुलाबी बार्डर वाले
 सुरमई बादल
मानो संध्या ने पहनी हो नई साड़ी
 कुहू-कुहू की तान गुंजाती ध्वनि  
और यह मंद पवन
जाने किस-किस बगिया के
फूलों की गंध लिये
आती है,
ऐसे में लिखी गयी यह पाती
किसके नाम है
क्या तुम नहीं जानते ?
तुम जो भर जाते हो अन्जानी सी पुलक
शिराओं में सिहरन और उर में एक कसक
विरह और मिलन एक साथ घटित होते हैं जैसे
आकाश में एक ओर ढलता है सूरज
तो दूसरी ओर उगता है चाँद !
हरीतिमा में झांकता है तुम्हारा ही अक्स
हे ईश्वर !या तो तुम हो.. या तुम्हारी याद.....

अनिता निहालानी
२५ मई २०११



सोमवार, मई 23

तू आनंद प्रेम का सागर



तू आनंद प्रेम का सागर

तू ही मार्ग, मुसाफिर भी तू
तू ही पथ के कंटक बनता,
तू ही लक्ष्य यात्रा का है
फिर क्यों खुद का रोके रस्ता !

मस्ती की नदिया बन जा मिल
तू आनंद प्रेम का सागर,
कौन से सुख की आस लगाये
तकता दिल की खाली गागर !

सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !

मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल-खिल जायेंगे उपवन भी !

एक पुकार मिलन की जागे
खुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन अंतरे को गाले !

अनिता निहालानी
२३ मई २०११     

शनिवार, मई 21

आज एक पुरानी कविता


याद तुम्हारी

हरी दूब, पंछी के पर सी
छूती मन को आहिस्ता से
कुछ गुनगुन कानों में करती
श्वासों के सँग गिरती-उठती
नीले आसमान सी निर्मल
याद तुम्हारी !

याद तुम्हारी फैली जल में
बिखरी फूल-फूल के दल में
प्रातः पवन में, सांध्य स्वप्न में
छत के हर सूने कोने में
सीढ़ी के खालीपन में भी
पुस्तक के इक इक पन्ने में
याद तुम्हारी !

चिडियों की चीं चीं में मिलती
मिट्टी की खुशबू में खिलती
दूर दूर तक नजर मिलाती
कभी निकट आकर सहलाती
अधरों के स्मित हास में गुपचुप
नयनों की मुस्कान में चुपचुप
मेरे पेन में, बुक शेल्फ में
लिखने वाली मेज पे सोयी
याद तुम्हारी !

अनिता निहालानी
२१ मई २००१
  

शुक्रवार, मई 20

ढाई आखर वाला प्रेम


ढाई आखर वाला प्रेम

‘ढाई आखर वाले’ उस प्रेम को पाने के लिये
इस प्रेम की गली से तो गुजरना ही होगा,
पर एक बार उस प्रेम को चखने के बाद
इस प्रेम का स्वाद भी बदल जायेगा
अभी तो मैल जमी है जिह्वा पर
माया के बुखार वाली
तभी बेस्वाद है जिंदगी
कभी भर जाता है मन कड़वाहट से
कभी कसैले लगने लगते हैं रिश्ते
कभी आंसुओं से भीग जाता है दामन
उस प्रेम को चखते ही..
बदल जाता है सब कुछ जैसे 
सब ओर वही प्रकाश भर जाता है
सबकी आँखों में भी झलकता है वही
उमड़ता है सहज स्नेह
छूट जाती हैं अपेक्षाएं
खो जाती हैं सारी मांगे
उस प्रेम की बाढ़ में
तिरोहित हो जाती है संकीर्णता
बहा ले जाता है सारा का सारा विषाद
एक ही साथ..
जन्म भर के लिये
वसंत छा जाता है भीतर !


अनिता निहालानी
२० मई २०११





बुधवार, मई 18

पिता


पिता

पुराने वक्तों के हैं पिता
उन वक्तों के
जब हवा में घुल गयी थी दहशत
खिलखिलाहटें, फुसफुसाहटों में
और शोर सन्नाटे में बदल रहा था
पाक पट्टन के स्कूलों में

बंटवारे की चर्चा जो पहले उड़ती थी
चाय की चुस्कियों के साथ
अब हकीकत नजर आने लगी थी
तब किशोर थे पिता
नफरत की आग घरों तक पहुँच चुकी थी
पलक झपकते ही आपसी सौहार्द का पुल
विघटन की खाई में बदल गया था

पुश्तों से साथ रहते आये गाँव तथा परिवार
ढह गए थे ऐसे जैसे कोई दरख्त जड़ों सहित
उखाड़ दिया गया हो
जलते हुए मकान, संगीनों की नोक पर
टंगे बच्चे, बेपर्दा की जा रहीं औरतें

रातोंरात भागना पड़ा था  उन्हें
औरतों व बच्चों को मध्य में कर
घेर कर चारों ओर से वृद्ध, जवान पुरुष
बढ़ते गए मीलों की यात्रा कर
कारवां बड़ा होता गया जब जुटते गए गाँव के गाँव..

....और फिर दिखायी पड़ी भारत की सीमा
जो था अपना पराया हो गया देखते-देखते
खून की गंध थी हवा में यहाँ भी
दिलों में खौफ, पर जीवन अपनी कीमत मांग रहा था
पेट में भूख तब भी लगती थी
...कहते-कहते लौट जाते हैं (अब वृद्ध हो चले पिता)    
पुराने वक्तों में... कि सड़कों के किनारे मूंगफली
बेचते रहे, गर्म पुराने कपड़ों की लगाई दुकान
और कम्पाउडरी भी की
फिर पा गए जब तहसील में एक छोटी सी नौकरी
हाईस्कूल की परीक्षा के लिये
सड़क के लैम्प के नीचे की पढ़ाई
पुरानी मांगी हुई किताबों से
और बताते हुए बढ़ जाती है आँखों की चमक
पास हुए प्रथम श्रेणी में
भारत सरकार के डाकविभाग में बने बाबू
और सीढ़ियां दर सीढ़ियां चढ़ते
जब सेवानिवृत्त हुए तो सक्षम थे
एक आरामदेह बुढ़ापे की गुजरबसर में
पर रह रह कर कलेजे में कोई टीस उभर आती है
जब याद आ जाती है कोई बीमार बच्ची
जिसे छोड़ आये थे रास्ते में उसके मातापिता
एक बूढी औरत जो दम तोड़ गयी थी पानी के बिना
दिल में कैद हैं आज भी वह चीखोपुकार
वह बेबसी भरे हालात
आदमी की बेवकूफी की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी
पिता ऊपर से संतुष्ट नजर आते हैं
पर भीतर सवाल अब भी खड़े हैं !


अनिता निहालानी
१८ मई २०११     

सोमवार, मई 16

सब संगीत बहा जाता है


सब संगीत बहा जाता है

स्रोत शांति का यदि भीतर है 
सारा जग अपना लगता है,
जो है जिसके पास, जगत !
वह, वही तुम्हें दे सकता है I

भीतर यदि मुस्कान भरी है
हँस सकता है संग सहर के,
फूलों के सँग बढा दोस्ती
चिड़ियों के सँग गा सकता है !

सभी सुखी हों और स्वस्थ भी
आनन्दित हो जाएँ सब ही,
सहज लुटाता ममता सारी
सेवा भाव जगा करता है !

लेकिन भीतर हो सन्नाटा
कुछ भी नजर कहाँ आता है,
जीवन की आपाधापी में
सब संगीत बहा जाता है !

तन पीड़ित हो, इंद्रधनुष भी
मन को भला नहीं लगता,
मन आकुल हो चाँद पूर्णिमा
का भी सुख न दे पाता है !

लोभ भरा हो अंतर में तो
दुखी नजर कहाँ आते हैं,
भूखे-प्यासे बच्चे भी तब  
नजर अंदाज किये जाते हैं !

भरी तिजोरी रहे सलामत
दुआ यही निकलती दिल से,
अपनों से भी खींचातानी
दान कहाँ दिया जाता है !

चुक गयी संवेदनायें जिसकी
 वह दिल कब खिल पाता है,
जीवन की आपाधापी में
सब संगीत बहा जाता है !

 अनिता निहालानी
१६ मई २०११


शनिवार, मई 14

इंद्रधनुष सतरंगी नभ में




इंद्रधनुष सतरंगी नभ में

पल भर पहले जो था काला 
नभ कैसा नीला हो आया,
धुला-धुला सब स्वच्छ नहाया
प्रकृति का मेला हो आया !

इंद्रधनुष सतरंगी नभ में
सौंदर्य अपूर्व बिखराता,
दो तत्वों का मेल गगन में
स्वप्निल इक रचना रच जाता !

जहाँ-जहाँ अटकीं जल बूंदें
रवि कर से टकराकर चमकें,
जैसे नभ में टिमटिम तारे
पत्तों पर जलकण यूँ दमकें !

जहाँ-तहाँ कुछ नन्हें बादल
होकर निर्बल नभ में छितरे,
आयी थी जो सेना डट के
रिक्त हो गयी बरस बरस के !

पूरे तामझाम संग थी वह
काले घन ज्यों गज विशाल हो,
गर्जन-तर्जन, शंख, रणभेरी
चमकी विद्युत, तिलक भाल हो !

पंछी छोड़ आश्रय, चहकें
मेह थमा, निकले सब घर से
सूर्य छिपा था देख घटाएँ
चमक रहा पुनः चमचम नभ में !

जगह जगह बने चहबच्चे
फुद्कें पंछी छपकें बच्चे,
गहराई हरीतिमा भू की
शीतलतर पवन के झोंके !
अनिता निहालानी
१४ मई २०११